अपने दिल को समंदर बना रहा हूँ मैं,
खुद से कुछ राज छुपा रहा हूँ मैं |
मिल न सकी मेरी गजल से मौशिकी उनकी,
फिर भी बर्षात में बेफिक्र गा रहा हूँ मैं |
था जलजला ऐसा की ढह गयी इमारत दिल की,
किसी जलजले का 'निशाना' सजा रहा हूँ मैं |
पढ़ न ले राज कोई उनके मेरी आंखों में,
यही सबब की आजकल 'चश्मा' लगा रहा हूँ मैं |
उनकी खामोश जुबां हो मुकम्मल ख़त जैसे,
कोरा पैगाम भी पढ़ते जा रहा हूँ मैं |
खुद से कुछ राज छुपा रहा हूँ मैं ||
---------------- "आशीष नैथानी/ हैदराबाद" -------------
No comments:
Post a Comment