घनी आबादी में रहना समाज में रहना तो नहीं
तकनीकों के मध्य रहना तकनीकी होना भी नही
और अकेला रहना असामाजिक होना तो बिलकुल नहीं
उस काल में पैदा होना
जब कि मिट्टी का रंग आँखें न पहचानती हों
और हल से हो एक स्थाई अजनबीपन,
रोजी की खोज में शहर आना बाध्यता होती है
मगर यहाँ आना कभी पूरा आना नहीं होता
न यहाँ से लौटना ही हो पाता है कभी पूरा
व्यस्त घड़ियों में सोमवार की पिछली शाम
शहर में खुश रहने की दलीलें तब साबित होती हैं
झूठी
जब एक दोस्त बातों ही बातों में कह उठता है
अपने दिल की बात
कि ‘मैं पहाड़ लौटना चाहता
हूँ |’
- आशीष नैथानी !!