तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Thursday 26 December 2013

एक ताज़ा ग़ज़ल !


Saturday 14 December 2013

निवेश

 मैं निवेश कर रहा हूँ अपनी नींदें
तुम्हारे प्यार में,
नफा-नुकसान सोचे बगैर
यूँ भी मुहब्बत कोई सौदा तो नहीं |

मैं जानता हूँ कि वहाँ
तुमने भी जुगनुओं से कर ली होगी दोस्ती,
तारों से जान-पहचान हो चुकी होगी अब तक
और चाँद खिड़की पे बैठ मुस्कुराता रहता होगा |

सूरज की किरणें अखरोट के पेड़ पर चढ़कर
झाँकती होंगी तुम्हारे कमरे में,
और गौरैयों के गाने तुम्हारी नींद में दखल देते होंगे |

अब तो डाकिया भी चिठ्ठियाँ बाँटने में लापरवाही करता होगा,
फ़ोन रखने की सलाह देता होगा,
मगर तुम्हारी उस आदत का क्या
जो यादों को संजोये रखना चाहती है,
ख़त, पैगाम, चिट्ठियों के मार्फ़त |

विश्वास करो,
यहाँ मैं भी कमोबेश उसी हालत में हूँ
शहर की भीड़ में अकेला सा,
जैसे कई कागजों के बीच रह जाता है एक कागज़
दबा हुआ सा,
मुड़ा हुआ सा,
कागजों की तह बिगाड़ता हुआ |

तुम्हारे गाँव और मेरे शहर में
हम दोनों की हालत एक सी है,
एक टूटे हुए पत्ते की माफिक
जिसे इधर की हवा उधर और
उधर की हवा इधर उड़ाने का प्रयास करती है |

खैर...

सुनो ! पिछले हफ्ते भेजा है एक और ख़त मैंने
पढ़ना, सँभालकर रखना या फाड़ देना,
क्या पता किस काम आ जाये ये निरीह ख़त
हँसने-मुस्कुराने के,
अलाव तापने के या फिर
तुम्हारी आँखों की नमी हटाने के |

-- आशीष नैथानी 'सलिल'


Monday 25 November 2013

कागज !


कागज पर लिखा होता है 'अ'
और लिखा होता है - १ भी,
बच्चों द्वारा खिंची होती हैं छोटी-बड़ी रेखाएँ
बेमतलब मगर महत्वपूर्ण |

कागज पर अक्षर, शब्द, वाक्य लिखे होते हैं
लिखे होते हैं सुख-दुःख के अनुच्छेद,
तमाम अनुभूतियों की कथाएं
विरह का दर्द और
मिलन सा सुकून लिखा होता है |

कागज पर छपी होती है जन्मपत्री
छपा होता है समाचार
और छपा होता है पंचांग भी | 

कागज -
जिस पर टिका रहता है सरकारी तंत्र
जो दस्तावेजों की शक्ल में रहता है,
जिसमें दायर की जाती है अर्जी
जिसमें चलते हैं मुक़दमे और
जिसमें लिखकर सुनाई जाती है सजा भी |

कागज, जिससे बच्चे बना लेते हैं कश्ती,
पतंग या गुड़िया
और फिर जो कूड़े में शामिल हो जाता है |
वही कागज जिस पर छपते हैं चुनावी पोस्टर,
गुमशुदा रपट,
भण्डारे की सूचना और
आतंकियों का चेहरा भी |
हाँ, वही कागज जो लिफाफे के रूप में घर पहुँचता है |

कागज जिसका अर्थ होता है
जिससे अर्थ होता है,
जिसे चाव से खा जाती है गौ |

कागज जिस पर लिखा जाता है पहला प्रेमपत्र,
जिसमें छपती हैं पुस्तकें,
जिसमें अक्षरज्ञान होता है |

क्रमशः...

Tuesday 19 November 2013

यही वो कह रही है !!!

नहीं उतरी धरा पर, फिर भी क्या-क्या सह रही है |
मुझे हो जाने दो पैदा यही वो कह रही है ||

मैं माँ तेरा, खिलौना हूँ, मुझे बाँहों में रखना
मैं बाबूजी, हूँ खुशबू सी, मुझे साँसों में रखना,
मैं बनकर तितलियों सी, घर में उड़ना चाहती हूँ
अपने भाईयों से जी भरके लड़ना चाहती हूँ ।

टूटकर बेटी कैसे कतरा-कतरा बह रही है ।
मुझे हो जाने दो पैदा यही वो कह रही है ||

मैं जुगनू बन उडूँगी लेके अपने हौंसले को
प्यार से सजा लूँगी माँ, अपने घर के घौंसले को
मैं तुम्हारी गोद में, बर्फ सी मिलना चाहती हूँ
पुरानी शाख पर नये पुष्पों सी खिलना चाहती हूँ  ।

बाढ़ सी बेटी किनारे तोड़ आगे बह रही है ।
मुझे हो जाने दो पैदा यही वो कह रही है ||

पहाड़ों पर सुबह जैसी, मुझे घर में आने दो माँ
नदियों के हरे जल सी, आँखों में समाने दो माँ,
मुझे भी सुननी है दादी-औ-नानी से कहानियाँ
मुझे रोने दो जी भरकर, जी भरकर रुलाने दो माँ ।

अजन्मी कली, बसन्त में बरसात सी बह रही है  ।
मुझे हो जाने दो पैदा यही वो कह रही है |
मुझे हो जाने दो पैदा यही वो कह रही है ||



Sunday 17 November 2013

आजाद हैं हम ?

आजाद हैं हम
उस परिंदे की तरह
जो कुछ समय हवा में उड़कर
लौट आता है वापस पिंजरे में |

आजादी ऐसी कि
जिस वाहन में सवार हैं
उस पर अधिकार नहीं,
जिसका अधिकार है
उस पर विश्वास नहीं |

आजादी सड़कों पर नारों के रूप में
पोस्टरों की शक्ल में नजर आती है
और मुँह चिढ़ाती है हमें
कहकर कि, हाँ मैं हूँ |

आजादी अख़बारों की हेडलाइन में
कि चित्रकार की
अभिव्यक्ति की आजादी का हुआ है हनन,
बिहार को मुम्बई तक फैलने की आजादी नहीं |

आज बँधा है इंसान
मवेशी बनकर
आजादी के खूंटे से |

आजादी मौजूद है अब भी
संविधान में, धर्म की किताबों में
हकीकत में बिलकुल नहीं |

ये आजादी बेहद मँहगी शै है दोस्तों !


आशीष नैथानी सलिल
नवम्बर १५/२०१३
हैदराबाद  !!
 


Sunday 27 October 2013

gajal


ऐ परिंदे ! शाम को फ़िर लौटकर आना है घर
इन दरख्तों से तेरी यूँ बेरुखी अच्छी नहीं ||
-- आशीष सलिल'

Thursday 26 September 2013

हिन्दी !

हिन्द की है शान हिन्दी
देश का अभिमान हिन्दी |

कौन कहता है कठिन ये
है बड़ी आसान हिन्दी |

अपनी भाषा, अपनी बोली
अपना ही उत्थान हिन्दी |

सूर्य के मानिंद उजली
है बड़ी अम्लान हिन्दी |

राष्ट्रभाषा है हमारी
दिल जिगर औ' जान हिन्दी |

अम्लान - जो उदास,मलिन या म्लान न हो / खिला हुआ

"हिन्दी वैभव मंडल, दिल्ली द्वारा प्रथम पुरस्कार से सम्मानित"


Friday 20 September 2013

बदलाव

शहद, धूप, छाँव, घाव
सब कुछ देखा है,
जिन्दगी ने
समय के सापेक्ष
बड़ा बदलाव देखा है |

जो नहीं समझते
इन्सान को इन्सान भी,
उनके घर में
विदेशी कुत्तों से
विशेष लगाव देखा है ||


तिश्नगी से...



Tuesday 17 September 2013

नई ग़ज़ल !

मुस्कुराना छोड़कर जाऊँ कहाँ |
आबो-दाना छोड़कर जाऊँ कहाँ ||

दिल लगाना छोड़कर जाऊँ कहाँ
ये फ़साना छोड़कर जाऊँ कहाँ ||

जिस ज़माने ने दिया सब कुछ मुझे
वो ज़माना छोड़कर जाऊँ कहाँ ||

धूप जंगल छाँव पानी औ' हवा
घर सुहाना छोड़कर जाऊँ कहाँ ||

छूट जाएँ गर ये सांसें ग़म नहीं
गीत-गाना छोड़कर जाऊँ कहाँ ||

ज़िंदगी के तल्ख़ रस्तों पर 'सलिल'
गुदगुदाना छोड़कर जाऊँ कहाँ ||

Thursday 15 August 2013

आज तलाश पूरी हुई

तुम्हें क्या लगता है
मैं वापस उस जगह नहीं गया
जहाँ आशियाना था तुम्हारा
और मंदिर का रास्ता गुजरता था
ठीक तुम्हारे घर के सामने से ।

हाँ, मैं तब कुछ ज्यादा ही
धार्मिक हुआ करता था
या कहें, धार्मिक बन गया था;
मेरा मंदिर, पूजालय तो मंदिर से
कुछ पहले ही था,
मंदिर तो जाता था
चंद मन्नतें माँगने के लिए,
हाँ, खुदगर्जी तो थी ही
क्या करें, उम्र ही ऐसी थी ।

और याद है एक दिन
जब मैं मंदिर के मुख्य द्वार से
भीतर प्रवेश कर रहा था,
तुम अचानक नजर आ गई थी
मंदिर से बाहर निकलते हुए,
शायद तुम्हें याद न हो
पर मुझे है,
बल्कि मैं तो भूला ही नहीं ।

फिर जब मैं वापस शहर लौटा
तो उसी मोहल्ले गया
जहाँ की हवा कभी तुम्हारे अहसास की
खुशबू से सराबोर रहती थी,
वही गलियाँ, वही घर, वही मंदिर
घर के आगे बाईं ओर खड़ा वही खुबानी का युवा पेड़,
पर न जाने क्यों शांति न मिली
साँसें उखड़ी-उखड़ी सी लगी; 
पता चला तुम शहर छोड़कर जा चुकी हो
दूर किसी और शहर में।

दिन का रात में
और रात का दिन में तब्दील होना
मेरे लिए वर्षों के बदलने जैसा था,
सच में,
इतना ही दुखदायी और इंतिजार भरा ।

पर दिन गए, महीने गए और
कई साल भी गए;
इस दौरान उम्र बदली, सूरत बदली
और काम-धाम भी बदल गया;
अगर कुछ नहीं बदला तो तुम्हारा इंतिजार | 

मेरी गाडी अक्सर गुजरा करती
तुम्हारे शहर के किनारे से बने बाईपास से
और मुझे अपनी जिंदगी बाईपास होती नजर आती ।

क्रमश: .......

Sunday 4 August 2013

ग़ज़ल !!!

वफ़ा कीजै या फ़िर जफ़ा कीजै
इश्क़ में कुछ न कुछ नया कीजै।

बुरा कीजै या फिर भला कीजै
रस्म जीवन की है, अदा कीजै।

कागजों का न दम निकल जाए
रोशनाई न यूँ रँगा कीजै।

ग़म कोई उम्र भर नहीं रहता
थोडा-थोडा सही, हँसा कीजै।

तितलियाँ बाग़-बाग़ उड़ती हैं
तितलियाँ हैं जनाब, क्या कीजै।



Monday 29 July 2013

फीकापन

एक लम्बी रात
जो गुजरती है तुम्हारे ख्वाब में,
तुम्हें निहारते हुए
बतियाते हुए
किस्से सुनते-सुनाते हुए ।

और जब ये रात ख़त्म होती है,
सूरज की किरणें
मेरे कमरे में बने रोशनदानों से
झाँकने लगती हैं,
मेरी नींद टूट जाती है तब ।

तुम्हारे ख्वाब के बाद
नींद का इस तरह टूट जाना,
महसूस होता है गोया
कि जायकेदार खीर खाने के बाद
कर दिया हो कुल्ला,
और मुँह में शेष रह गया हो
महज फीकापन ।













Tuesday 23 July 2013

चाय का ठेला

मैं तब बे-रोकटोक चला जाता था
नुक्कड़ पर
२ रुपये की चाय पीने ।

कभी 'एक बटा दो' चाय भी पीनी पड़ी;
जब रास्ते में मिल जाता
कोई दोस्त-यार
तो चाय के हिस्से हो जाते,
कभी 'दो बटा तीन' भी ।

अब ऐसे किसी ठेले पर खड़ा होने में
महसूस होती है शर्म,
और लगा रहता है डर कि
कहीं कोई देख न ले,
कोई सहकर्मी या ड्राइवर,
चौकीदार या रसोईया,
कोई भी जान-पहचान वाला
देख लेगा तो क्या सोचेगा ?

बस इसी लाज-शर्म से
जाता हूँ किसी ऐसी जगह
जहाँ मिलती है मँहगी और बेस्वाद 'कॉफ़ी',
जिसे पीकर ऐसा मुँह बनाना होता है
कि,  वाह बहुत लजीज है ।
मगर सच तो ये है कि वो
नुक्कड़ के २ रूपए इन वातानुकूलित होटलों के
१०० रुपयों से कहीं अधिक स्वादिष्ट थे ।

फिर शायद वो जायका
लौटे न लौटे ।







Big Smileys

Saturday 13 July 2013

धर्म

भारत में
हिन्दू और मुसलमान का रिश्ता
उतना ख़राब नहीं है
जितना कि
सियासत बताती है और
मीडिया दिखाती है ।

सच तो ये है कि
आम आदमी को इतना
समय ही नहीं मिलता;
वो तो व्यस्त है
अपनी रोजी-रोटी जुटाने में ।

इन बातों का समय सिर्फ उन्हें है
जिनकी रोजी-रोटी पकती है
धर्म के तवे पर ।


Thursday 11 July 2013

"तिश्नगी" कैसे प्राप्त करें ?

मित्रों, तिश्नगी प्राप्त करने हेतु अपना पूरा पता ईमेल कर दें - 
ashish.naithani.salil@gmail.com


साथ ही इस नंबर पर सन्देश भेज दें 
9666 060 273



पुस्तक का नाम - तिश्नगी (काव्य-संग्रह)

कविताओं की संख्या - 51
पृष्ठ संख्या - 80

मूल्य - 110 (डाक खर्च सहित) 



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अकाउंट की जानकारी 
------------------------------

ASHISH NAITHANI
A/C #  03171610059180 
HDFC BANK

JUBILEE HILLS HYDERABAD

IFCS- HDFC0000317









Saturday 29 June 2013

तिश्नगी - विमोचन समारोह


















परम आत्मीय स्वजन,

सादर अभिवादन ।

आप सभी को यह सूचित करते हुए मुझे अत्यंत हर्ष की अनुभूति हो रही है कि आगामी ७ जुलाई, २०१३ रविवार को मेरी प्रथम काव्य-कृति 'तिश्नगी' का विमोचन साहित्यिक-संस्था 'साहित्य-मंथन' के तत्वाधान में होना सुनिश्चित हुआ है। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, हैदराबाद के अध्यक्ष एवं प्राचार्य प्रो. ऋषभ देव जी शर्मा के कर-कमलों द्वारा पुस्तक विमोचित होगी।

इस कार्यक्रम की अध्यक्षता हैदराबाद से प्रकाशित भारतीय भाषा, संस्कृति एवं विचारों की प्रतिनिधि मासिक पत्रिका 'भास्वर-भारत' के संपादक डॉ. राधेश्याम जी शुक्ल करेंगे तथा अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहेंगे।

इस कार्यक्रम में आप सभी साहित्यप्रेमियों एवं मित्रों की उपस्थिति प्रार्थनीय है।

दिन व समय - 7 जुलाई, 2013 - रविवार - (सायं - 4:00 बजे )
स्थान - सम्मेलन कक्ष, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद - हैदराबाद - 500 004 (निकट - खादी भण्डार एवं Visual Photo Studio)



Facebook Event Link

 

 - निवेदक
आशीष नैथानी
हैदराबाद
9666 060 273

Sunday 23 June 2013

हमें लौटना होगा पहाड़ !

जब बरसातें थम चुकी होंगी
जब तीर्थयात्री और पर्यटक
लौट चुके होंगे वापस
अपने-अपने आशियानों में
और जब माँ गँगा का क्रोध
शान्त हो चुका होगा,
हमें लौटना होगा पहाड़ ।

फिर से तलाशनी होगी प्राणवायु
हटाना होगा मिट्टी-पत्थर से बना मलबा
खोजनी होगी अपनी बची-खुची जमीन
फिर से बनाने होंगे उजड़े हुए मकान
टूटे हुए पुश्ते, टूटी दीवारें,
पुल और सड़कें ।

फिर से रखना होगा नींव का पत्थर
फिर से शुरू करना होगा कोई रोजगार
फिर से देखने होंगे सपने,
बहते आँसुओं को पोंछते हुए ।

फिर से बनायेंगे एक गौशाला
और पालेंगे मवेशियों को भी ।

हाँसमय लगेगा
घाव उथले तो हैं नहीं
पूरा समय लेंगे भरने में
मगर जब दर्द कुछ कम होगा
तो खेतों में लहलहा रहा होगा धान
मक्का कोदा झँगोरा और सरसों,
पेड़ों पर फिर से लद चुके होंगे फल
सेब, आडू और खुबानी के ।

गँगाजल फिर से मीठा हो चुका होगा
बद्री-केदार में आरतियाँ प्रारम्भ हो चुकी होंगी ।

बच्चे फिर से बस्ता सजा रहे होंगे
फिर से लौट आएगा -
गाय का रम्भाना
कोयल की कूक और
बच्चों की किलकारियाँ ।

पोंछ डालो अब इन आँसुओं को
विधाता की इच्छा के आगे किसी का बस नहीं चलता,
चलो बनायें एक नया गढ़वाल-कुमाऊँ
चलो लौट चलें पहाड़ों की ओर ।
     
                 शीष नैथानी लिल
                 २३ जून, २०१३

Saturday 15 June 2013

ये आँसू किसके हैं ?

उस रोज जब
तुम्हें स्टेशन पर छोड़कर
मैं वापस लौटा
तो डायरी में बस यही दो शब्द लिख पाया,
अलविदा प्रिये !

अगली सुबह जब सिरहाने से
निकाली वही डायरी
और खोला वही पन्ना
तो देखते हैं कि
रोशनाई कुछ फैली सी है
और वो काग़ज भी भीगा-भीगा सा है ।

न जाने क्या हुआ रातभर
न जाने कौन रोता रहा,
ये आँसू उन लफ़्जों के थे
या मेरी आँखों के ,
कौन जाने !

आशीष नैथानी 'सलिल'
हैदराबाद (जून,१५/२०१३)

Friday 14 June 2013

तिश्नगी - ISBN: 978-81-921666-4-0 (Tishnagi)




              'तिश्नगी...' युवा कवि आशीष नैथानी 'सलिलकी विताओं की पहली किताब है  तिश्नगी और सलिल अर्थात प्यास और पानी का विरोधाभास सहज ही ध्यान खींचता है  पर ठीक ही हैपानी दूसरों की प्यास बुझाता है - उसकी अपनी प्यास कभी कहीं बुझती है कि नहींकौन जाने ! खैर...

       
आशीष की ये कविताएँ उस तृषा को शब्दबद्ध करती हैं जिसके कारण हर संवेदनशील प्राणी निरंतर भटक रहा है  पानी पर सदा से यक्षों के पहरे हैं और किसी पांडव तक को अपने युग के प्रश्नों के उत्तर दिए बिना पानी नहीं मिलता विचित्र विडंबना हैपानी भी है अनंत और प्यास भी है अनंत  भोग चुक जाते हैंलोग चुक जाते हैंकाल चुक जाता हैदेश चुक जाते हैंतप चुक जाता हैतेज चु जाते है। कई बार तो जल भी चुक जाता है पर यह निगोड़ी प्यास चुके नहीं चुकती तृष्णा  जीर्णा वयमेव जीर्णाः 

        
तृषा रूप में समस्त जगत में व्यापने वाली बेचैनी आशीष के कवि की मूलभूत बेचैनी है  नुष्य और मनुष्य के बीच लगातार खाई बढती जा रही है और आपसी रिश्ते-नाते छीजते जा रहे हैं  ऐसे में यह युवा कवि संबंधों की मिठासप्रेमपूर्ण विश्वास और अपनेपन की प्यास को कविता का कलेवर प्रदान करने की सहज चेष्टा में संलग्न दिखाई देता है  संवेदनशीलतापरस्पर सहानुभूति और सुख-दुःख के रिश्ते फिर से हरे भरे हो जाएँ इसके लिए वर्षा की कामना कवि की प्यास का एक पहलूहै। किशोरावस्था का आकर्षणअल्हड़ रूप की आराधना, दर्शन की आकांक्षा, मिलन की प्रतीक्षासंयोग का उन्मादवियोग का अवसादउपालंभ  और शिकायतें, जागते-सोते देखे गए सपने और छोटी छोटी घटनाओं के स्मृति कोश में अंकित अक्स आशीष की तिश्नगी का दूसरा पहलू है  देस-दुनिया में सामाजिक न्याय की कमीमानवाधिकारों का हननऔर तो और बच्चों का शोषणसांप्रदायिकता, आतंकवादधर्मोन्माद और युद्ध से उत्पन्न होने वाली असुरक्षा था लोकतंत्र की हत्या करती हुई तानाशाही से  पैदा होने वाली चिंता युवा कवि सलिल की अबूझ पिपासा का तीसरा आयाम है। इसके अतिरिक्त मनुष्य और प्रकृति के अंतर्बाह्य सौंदर्य  के दर्शन से जुड़ा है इस कवि की शाश्वत तृषा का चौथा आयाम 

          
इस तरह तरह की प्यास को आशीष नैथानी 'सलिलने अपनी तरह से अभिव्यक्त किया है  भाषा के मामले में वे तनिक भी कट्टर नहीं हैं  बहती हुई भाषा उन्हें पसंद है जिसमें स्वाभाविक रूप से तत्सम और उर्दू शब्दावली एक साथ चली आती है  शैली के मामले में भी आशीष काफी लोकतांत्रिक  हैं। कहीं लोकगीतों का पुट है तो कहीं शेरोशायरी का अंदाज  पर प्यास अपनी जगह है । यह प्यास अंधेरे में प्रकाश के स्वप्न दिखाती है - "अंधेरी रात में / रोशन सुबह का ख्वाब अच्छा है /बच्चे के चेहरे पे हँसी है, / शहर में / कुछ तो जनाब अच्छा है "


              ...... 
तो जनाबसलिल की यह तिश्नगी सबकी तिश्नगी बने और सब अपने अपने सलिल को पा सकेंइसी कामना के साथ मैं इस कविता संग्रह का अभिनंदन करता हूँ 
                                                  

  16 मार्च, 2013                                                             - डॉऋषभ देव शर्मा 
                                                     आचार्य एवं अध्यक्ष 
                                                     उच्च शिक्षा और शोध संस्थान 
                                                     दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा 
                                                     खैरताबादहैदराबाद