तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Thursday 18 December 2014

क्या हुआ कोशिश अगर ज़ाया गई

क्या हुआ कोशिश अगर ज़ाया गई
दोस्ती हमको निभानी आ गई |

बाँधकर रखता भला कैसे उसे
आज पिंजर तोड़कर चिड़िया गई |

चूड़ियों की खनखनाहट थी सुबह
शाम को लौटी तो घर तन्हा गई |

लहलहाते खेत थे कल तक यहाँ
आज माटी गाँव की पथरा गई |

कैस तुमको फ़ख्र हो माशूक पर
पत्थरों के बीच फिर लैला गई |

आज फिर आँखों में सूखा है 'सलिल'
ज़िन्दगी फिर से तुम्हें झुठला गई |

Tuesday 4 November 2014

लौटना, न लौटना !!

घनी आबादी में रहना समाज में रहना तो नहीं
तकनीकों के मध्य रहना तकनीकी होना भी नही
और अकेला रहना असामाजिक होना तो बिलकुल नहीं

उस काल में पैदा होना
जब कि मिट्टी का रंग आँखें न पहचानती हों
न मालूम हो पकते धान की खुशबू
और हल से हो एक स्थाई अजनबीपन,
रोजी की खोज में शहर आना बाध्यता होती है

मगर यहाँ आना कभी पूरा आना नहीं होता  
न यहाँ से लौटना ही हो पाता है कभी पूरा

व्यस्त घड़ियों में सोमवार की पिछली शाम
शहर में खुश रहने की दलीलें तब साबित होती हैं झूठी
जब एक दोस्त बातों ही बातों में कह उठता है
अपने दिल की बात
कि ‘मैं पहाड़ लौटना चाहता हूँ |’

                          - आशीष नैथानी !!

Friday 17 October 2014

October ki Ghazal

दरिया को राह देके समन्दर बनाइये
पत्थर उठाइये, किसी का घर बनाइये |

बर्बाद यूँ न कीजिए अश्कों की दौलतें
जज्बों को रोककर कोई लश्कर बनाइये |

Monday 1 September 2014

अगस्त महीने की ग़ज़ल !

डायरी पर लफ्ज़ उतरे तेरे घर जाने के बाद
और भी वीरानियाँ हैं दिल के वीराने के बाद |

ऐसे सच को सच की नजरों से भला देखेगा कौन 
सामने जो आएगा अखबार छप जाने के बाद |

जिद कहें बच्चों की या फिर कह लें हम मासूमियत
खेल खेलेंगे उसी मिट्टी में समझाने के बाद |

ज़िन्दगी बस दो सिरों के बीच फँसकर रह गयी 
तीसरी भी हो जगह घर और मैखाने के बाद |

छोड़ दें ढीला न यूँ रिश्तों को अब उलझाएँ हम 
रस्सियाँ सुलझी नहीं टूटी हैं उलझाने के बाद |

आपके इस शहर में हासिल हुआ ये तज्रिबा 
रास्तों पर बुत मिले हर ओर बुतखाने के बाद |

सुब्ह भी होती रही औ' दर्द भी जाता रहा 
'शम्अ भी जलती रही परवाना जल जाने के बाद |'

जाइये उजड़े घरों में फिर से गेरू पोतिये
लौटकर है फायदा क्या उम्र ढह जाने के बाद |

                          आशीष नैथानी 'सलिल'
                       अगस्त,३०/२०१४ (हैदराबाद)


Saturday 9 August 2014

ग़ज़ल !!

जाने कब कोई अपना हो जाता है
इक चेहरा दिल का टुकड़ा हो जाता है |

कभी-कभी घर में ऐसा हो जाता है
सबका एक अलग कमरा हो जाता है |

जज्बों की बाढ़ आती है पलभर और फिर
‘धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है |’

हँसी-ख़ुशी सब कुछ रहती है सपनों में
सुब्ह उठूँ तो सब कूड़ा हो जाता है |

बेटा जब रिश्तों की कद्र नहीं करता
सच तब कड़वे से कड़वा हो जाता है |

सहर नहीं होती तन्हाई की शब की
कभी-कभी मौसम को क्या हो जाता है |

याद कभी तो हाल समझ मेरे दिल का
यादों से इन्सां बूढ़ा हो जाता है |

                    आशीष नैथानी 'सलिल'
                    'लफ्ज़' तरही १३ से

एक ग़ज़ल !!

शहर भर का दर्द पीना चाहता हैं
शख़्स कैसा है ये जीना चाहता है |

इत्र से मजदूर का रिश्ता भी कैसा
जो महज बहता पसीना चाहता है |

तीरगी के इस समन्दर में मुसाफ़िर
रौशनी का इक सफ़ीना चाहता है |

इस सियासत में बहुत पत्थर भरे हैं
मुल्क अब कोई नगीना चाहता है |

- आशीष नैथानी सलिल
पुष्पक - अंक २४ (हैदराबाद) से २०१३ में प्रकाशित 

Sunday 27 July 2014

माँ और पहाड़ !!

सीढ़ियों पर चढ़ता हूँ
तो सोचता हूँ माँ के बारे
कैसे चढ़ती रही होगी पहाड़ |

जेठ के उन तपते घामों में
जब मैं या दीदी या फिर छोटू बीमार पड़े होंगे
तो कैसे हमें उठाकर लाती रही होगी
हमारा लाश सा बेसुध तन
डॉक्टर के पास |

घास और लकड़ी के बड़े-बड़े गठ्ठर
चप्पल जितनी चौड़ी पगडंडियों पर लाना
कोई लतीफ़ा तो  रहा होगा
वो भी तब जब कोई ऊँचाई से खौफ़ खाता हो |

जंगलों की लाल तपती धूप
नई और कमजोर माँ पर रहम भी  करती रही होगी
माँ के साँवलेपन में ईष्टदेव सूरज
करीने से काजल मढ़ते होंगे
और माँ उन्हें सुबह-सुबह ठंडा जल पिलाती होगी | 

पूर्णिमा पर चाँद की पूजा करने वाली
अँधेरे में डरते-डरते छत पर जाती होगी
और भागती होगी पूजा जल्दी से निपटाकर
डर से जैसे सन्नाटा पीछा कर रहा हो,
खुद को सँभालती हुई तंग छज्जे पर |

हममें से कोई रो पड़ता
और उसकी नींद स्वाह हो जाती |

हमें सुलाने के लिए कभी-कभी
रेडियो चलाती
धीमी आवाज में गढ़वाली गीत सुनती,
गुनगुनाती भी |

उन पहाड़ों की परतों के पार
शायद ही दुवाएँप्रार्थनाएँ जाती रही होंगी
जाती थी सिर्फ एक रोड़वेज़ की बस
सुबह-सुबह
जो कभी अपनों को लेकर नहीं लौटती थी |

पिताजी एक गरीब मुलाजिम रहे,
आप शायद दोनों का अर्थ बखूबी जानते होंगे
गरीब का भी और मुलाजिम का भी |

छब्बीस की उम्र में
चार कदम चलकर थकने लगता हूँ मैं
साँस किसी बच्चे की तरह
फेफड़ों में धमाचौकड़ी करने लगती है,
बात-बात पर मैं अक्सर बिखर सा जाता हूँ |

क्या इसी उम्र में माँ भी कभी निराश हुई होगी
अपने तीन दुधमुँहे बच्चों से,
पति का पत्र  मिलने की चिन्ता भी बराबर रही होगी  |

थकताटूटता हूँ तो करता हूँ माँ से बातें
(फोन पर ही सही)
निराशा धूप निकलते ही
कपड़ों के गीलेपन के जैसे गायब हो जाती है
सोचता हूँ
वो किससे बातें किया करती होगी तब
दुःख दर्द में
अवसाद की घड़ियों में,
ससुराल की तकलीफ़ किसे कहती होगी
वो जिसकी माँ उसे  साल में ही छोड़कर चल बसी थी |

शीष नैथानी  
मार्च/२३/२०१४
हैदराबाद !!

ग़ज़ल !!

मुंसिफ़ों ने नहीं पूछी मेरी इच्छा मुझसे
जाने किस बात से नाराज़ है दुनिया मुझसे |

नौकरी छूटी तो फिर देर से घर आने लगा
डर था माँगे खिलौना मेरा बच्चा मुझसे |

रंग गिरना है हवेली का भी अबके सावन
गुफ़्तगू में कहे आषाढ़ महीना मुझसे |

हिज़्र की रात मेरे साथ ग़ज़ब और हुआ
रौशनी माँग रहा था जो अँधेरा मुझसे |

खर्च कर दे मुझे तू अपने लिए चैन कमा
कह गया जेब का वो आख़िरी सिक्का मुझसे |

मेरे होंटों को मिला लफ्ज़ उस वक़्त कोई
मेरे दुश्मन ने मेरा हाल जो पूछा मुझसे |

ज़िन्दगी तेरे सिवा किससे तआरुफ़ मेरा
और तू ही कहे तू कौन है मेरा, मुझसे |

इतने दुख इतने मसाइल हैं निजी जीवन में
किसको फ़ुर्सत है करे मुल्क का चर्चा मुझसे |

Sunday 8 June 2014

अप्सरा !

धरती पर नहीं होती अप्सराएँ |

अगर होती हैं
तो किसी के स्वप्न में
या किसी कलमकार की कोरी कल्पना में |

अगर वह अप्सरा होती
तो क्या जन्म से पहले ही मार दी जाती
                             माँ की कोख में ?

अगर वह अप्सरा होती
तो क्या इस तरह सरेराह फूँक दी जाती
                                   तेज़ाब से  ?

अगर वह अप्सरा होती
तो क्या काले शीशों के भीतर नोची-घसोटी जाती
                                   कई भेड़ियों द्वारा  ?

अगर वह अप्सरा होती
तो क्या उसे इतना मजबूर किया जाता
            कि वह अपनी जान ही ले ले ?

नहीं, बिलकुल नहीं
वह अप्सरा नहीं है
कोई नहीं समझता उसे अप्सरा
          उसे महज हाड-मांस का
     एक पुतला समझा जाता है |

एक पुतला जिसे जब चाहो कंधे पर रख लो
                         जब चाहो हासिल कर लो
                                 जब चाहो त्याग दो |

बस, और क्या...

कुछ शब्द कागज़ पर कितने सुहाते हैं            
                          मसलन 'अप्सरा',
           जो हकीकत में वैसे नहीं होते
                           जैसे होने चाहिए,
                                          वाकई |

Thursday 8 May 2014

यहाँ के रहे न वहाँ के !!

मैंने महसूस किया अपनी नकली कविता की पंक्तियों को
मँहगे आवरण में लिपटे सस्ते माल की तरह,
मैंने लम्बे समय तक धूल से वह वस्तु बचाये रखी
जो शायद उतनी कीमती नहीं थी |

मैंने महसूस किया कि जिसे मैं,
मैं-मैं लिखता रहा
वह अंत में कोई और निकला
जिसे मैं या तो पहचान न सका
या समय के साथ भूल सा गया |

मैंने कागजों पर जिक्र किया सलीके से बने तालाबों का
इस जिक्र में जमीन गाँव की थी
पर तालाब कुछ-कुछ पाँच सितारा होटलों के स्वीमिंग पूल जैसा |

मैंने विदेशी कुत्ते को सहलाते हुए मवेशियों के बारे में रचा
सोफे पर पैर पसारकर कहवा पीते हुए
मैं आलसी बैल की नस्ल को ‘पमेलियन’ तक लिख गया,
मैं अपनी ढोंगी शहरी सभ्यता के चलते गोबर न लिख पाया
मैं डरता रहा अपनी मँहगी कलम के बदबूदार हो जाने से
और इस गंध से सरस्वती के प्राण त्याग देने के भय से |

स्कूल से चुराई हुई रंगीन चौकों का
बुझे बीड़ी के टुकड़ों को फिर से लाल करने का
अपनी कक्षा में फिसड्डी होने का,
मैंने कभी जिक्र करना उचित नहीं समझा
या यूँ कह लें
मैंने ये बातें समझदारी से छिपा ली |

मैं कंचे, गिल्ली-डंडे की बलि चढ़ाकर क्रिकेट-क्रिकेट चिल्लाया
कुछ दिन सिक्कों को सामने बने छिद्र में डालने वाला खेल खेला
माचिस के पत्तों की ताश भी खेली
पत्थरों की बट्टियाँ भी
मौजे से बनी गेंद और पिट्ठू भी,
मगर मैंने बराबर ध्यान रखा कि
मेरा देहातीपन गले में बँधे ताबीज की तरह झाँकने न लगे |

दरअस्ल मैं तुलसी-पीपल तो लिख ही नहीं पाया
स्याही में निब डुबो-डुबोकर
सिर्फ धन-वृक्ष लिखता रहा |

मैं अपनी पैंट के छिद्रों को शब्दों से ढाँपता रहता
जैसे माँ रफू किया करती थी,
मगर मेरे ढाँपनेपन में
वो सलीके वाला रफूपन हमेशा नदारत रहा |

किसान काका के दर्द को लिखते हुए
मैंने अपने गालों पर कुटिल हँसी महसूस की
उसके दर्द की कराह पर
स्वयं के होंठों पर तर्जनी रख दी
और फिर शहरी बनने का स्वाँग करता रहा,
न मेरा अधकचरा शहरीपन उसकी तकलीफ कम कर पाया
न मेरा भीतरी गँवारपन उसकी जान बचा पाया |

मैं भीतर ही भीतर खेत के पुस्तों सा टूटता रहा
किताब की जिल्द सा उधड़ता रहा 
दरकता रहा समुद्रतट पर बनी मूरत जैसा
सावन के धारों सा बहता रहा, अनवरत, अकेला
मैं शहर में रहा खोखली शान से
सम्पन्नता के दरमियान,
मैं विलासिता की सीमा पर  सुखमय जीवन गुजारता रहा
और फिर उसी मँहगी कलम से
‘सी.एफ.एल.’ की दूधिया रौशनी में 
एक गरीब की कविता लिखता रहा |

                                     शीष नैथानी ‘लिल’
                                     हैदराबाद (मई,९/२०१४)


Saturday 29 March 2014

पहाड़े !

उन दिनों पहाड़े याद करना
मुझे दुनिया का सबसे मुश्किल काम लगता था,
पहाड़े सबसे रहस्यमयी चीज |

९ के पहाड़े से तो मैं हमेशा चमत्कृत रहा
वो मुझे अहसास दिलाता
एक सुसंस्कृत बेटे का
जो घर से बाहर जाकर भी
घर के संस्कार न भूले |

मैं देखता कि कैसे
६ के पहाड़े में आने वाली सँख्यायें
३ के पहाड़े में भी आती
मगर छोटे-छोटे क़दमों में,
मुझे लगता एक पिता
अपने बच्चे की कलाई थामे
१२, १८, २४ वाली धरती पर कदम रख रहा है
और बच्चा
६, ९, १२ वाली धरती पर,
पिता के दो क़दमों के बीच की दूरी
बच्चे के क़दमों की दूरी की दूनी रहती |

१० का पहाड़ा हुआ करता था मासूम
पहली पंक्ति में बैठने वाले बच्चे की तरह
जिसकी ऐनक नाक पर टिकी होती
जो बालों पर कड़वा तेल पोतकर आता
और बाल ख़राब होने पर बहुत रोता था |

१७ का पहाड़ा सबसे बिगड़ैल
गुण्डे प्रवृत्ति  के छात्र की तरह |

शर्दियों में हम धूप में बैठकर गणित पढ़ते
बस्ते में रहती एक पट्टी पहाड़ा
जिसे हम रटते रहते,
मौखिक परीक्षा में १९ का पहाड़ा पूछा जाता
सुनाने पर पूरे २० अंक मिलते |

कभी-कभी नगर में पहाड़ा प्रतियोगिता होती
मैं २५ तक पहाड़े याद करता
और देखता कि कुछ बच्चों को ४२ का भी पहाड़ा याद है,
हालाँकि समय गुजरते उन्हें भी २५ तक ही ठीक से पहाड़े याद रहते |

मुझे २५ के पहाड़े से अगाध प्रेम रहा
जो बरकरार है |

उन दिनों
पहाड़ों की गुनगुनी धूप में
पहाड़े याद करना
जीवन की सबसे बड़ी चुनौती थी |

सोचता हूँ फिर से वे दिन मिल जाएँ
फिर से मिल जाय पीठ पर हाथ फेरती गुनगुनी धूप
मास्टर जी की डाँट,
अबकी बार इन चुनौतियों के बदले
मैं भी ४२ तक पहाड़े याद कर लूँगा
कभी न भूलने के लिये |

शीष नैथानी लिल
मार्च/२९/२०१४ (हैदराबाद)

Monday 17 March 2014

होली दोहे !!



होली के पावन दिवस, ऐसे उड़े अबीर |
हरिद्वार में चमक उठे, जैसे गंगा तीर ||

फागुन पूनम आ गयी, आया प्रिय त्यौहार |
रंग लिए घर से चले, बाल प्रौढ़ नर नार ||

बच्चों के रंगे हुए, लाल बैंगनी गाल |
काला गोरा सब रँगा, रंगारंग कमाल ||

तितली को तितली लगे, उस दिन पूरा गाँव |
रंग पहनकर जब चलें, बादल पानी छाँव ||

कभी-कभी ही दीखती, आँखों में मुस्कान |
कभी-कभी इन्सान से मिल पाता इन्सान ||

पानी की बौछार से, सिहरा पूरा गात |
सुबह-सुबह की ठण्ड में, हाय कुठाराघात ||

गुजिया की मीठी महक और ठंडाई भाँग |
रंगों के त्यौहार पर, बस इतनी सी माँग ||

पीस कोयला खेलता, होली मेरा गाँव |
निशा रूप में रँग गए, मुँह हाथ और पाँव ||

अधरों पर प्रिय गीत है, काँधे पर है ढोल |
पूनम के उजले दिवस, मीठे-मीठे बोल ||

सरसों गेहूँ बाजरा, जाने कितने रंग |
रंग प्रेम में माँ धरा, कितनी हुई मलंग || 

रंगों से खेला करे, एक कृषक परिवार |
वृहद धरा की थाल पर, धान बाजरा ज्वार ||

संस्कृति पर हावी हुआ, वैश्विकता का दौर |
होली को ऑफिस लगे, बम्बइ या बंगलौर ||

स्वर्ण रंग सा चमकता, आजादी का घाम |
सीमा पर मुश्तैद है, सैनिक ! तुझे सलाम ||

चाहे सूखी खेलिए या खेलें लठमार |
होली के पर्याय हैं, प्रीत प्रेम औ' प्यार ||

उप्पल से कोथागुड़ा, इधर खैरताबाद |
इंद्रधनुष बन झूमता मस्त हैदराबाद ||




 











Monday 10 March 2014

ग़ज़ल !!

राह में खतरे बड़े हैं
हमसफ़र पीछे पड़े हैं |

देख लेंगे हर मुसीबत
हौसले ज़िद पर अड़े हैं |

चार दिन की ज़िन्दगी और
रोते-धोते थोपड़े हैं |

जानते हैं जीत क्या है
जंग जो सैनिक लड़े हैं |

शोरगुल ऊँचे महल का
तन्हा-तन्हा झोपड़े हैं |

क्या हुआ आबोहवा को
फड़फड़ाते फेफड़े हैं |

छेड़ना मत, है सियासत
सब हैं मुर्दे सब गड़े हैं |

हर तरफ़ माहौल अच्छा
कितने झूटे आँकड़े हैं |

आलसी बेहोश हैं सब
होशवाले बस खड़े हैं |

                 आशीष नैथानी सलिल

Saturday 1 March 2014

ग़ज़ल - जारी है !

बादलों में भी जंग जारी है
क्या ख़बर कितनी बेकरारी है |

फिर सितारों पे तेरा नाम लिखा
फिर अकेले में शब गुजारी है |

उम्र कैसे कटेगी तेरे बगैर
उम्रभर सोचकर गुजारी है |

क़त्ल की पूछते हैं परिभाषा
ज़िन्दगी ज़िन्दगी से हारी है |


Thursday 6 February 2014

कहानी

जब कहानी ख़त्म हो
तो तुम ताली न बजाओ
एकटक देखो मुझे
और खोजो उस नायक को
जो सिर्फ कहानी में रह गया |

Friday 3 January 2014

शेष !!!

नदियों में जल नहीं बचा
दरख्तों पर नहीं बचे फल-फूल
फलों में स्वाद,
फूलों में महक नहीं बची
धरा पर नहीं बचा धैर्य |

नहीं बची फुदकती गौरैया
जुगनू, तितलियाँ
पहाड़ों पर हिमनद
सुदूर बुग्यालों में नहीं बचे ब्रह्म-कमल |

न बचने की कगार पर है -
खेती योग्य जमीन
मृदा का उपजाऊपन
स्वच्छ हवा-जल
और जीवन |

अब ऐसे में
जब प्रकृति स्वयं अप्राकृतिक हो जाय
मानव हो जाय मशीन
ख़त्म हो जाएँ भावनाएँ इन्सानियत और भाईचारे की,
आदमी के भीतर आदमी और
हिंदुस्तान के भीतर हिंदुस्तान बचे रहने की कल्पना
बेमानी नहीं तो और क्या है |

                    आशीष नैथानी सलिल