तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Sunday 8 June 2014

अप्सरा !

धरती पर नहीं होती अप्सराएँ |

अगर होती हैं
तो किसी के स्वप्न में
या किसी कलमकार की कोरी कल्पना में |

अगर वह अप्सरा होती
तो क्या जन्म से पहले ही मार दी जाती
                             माँ की कोख में ?

अगर वह अप्सरा होती
तो क्या इस तरह सरेराह फूँक दी जाती
                                   तेज़ाब से  ?

अगर वह अप्सरा होती
तो क्या काले शीशों के भीतर नोची-घसोटी जाती
                                   कई भेड़ियों द्वारा  ?

अगर वह अप्सरा होती
तो क्या उसे इतना मजबूर किया जाता
            कि वह अपनी जान ही ले ले ?

नहीं, बिलकुल नहीं
वह अप्सरा नहीं है
कोई नहीं समझता उसे अप्सरा
          उसे महज हाड-मांस का
     एक पुतला समझा जाता है |

एक पुतला जिसे जब चाहो कंधे पर रख लो
                         जब चाहो हासिल कर लो
                                 जब चाहो त्याग दो |

बस, और क्या...

कुछ शब्द कागज़ पर कितने सुहाते हैं            
                          मसलन 'अप्सरा',
           जो हकीकत में वैसे नहीं होते
                           जैसे होने चाहिए,
                                          वाकई |