तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Monday 25 November 2013

कागज !


कागज पर लिखा होता है 'अ'
और लिखा होता है - १ भी,
बच्चों द्वारा खिंची होती हैं छोटी-बड़ी रेखाएँ
बेमतलब मगर महत्वपूर्ण |

कागज पर अक्षर, शब्द, वाक्य लिखे होते हैं
लिखे होते हैं सुख-दुःख के अनुच्छेद,
तमाम अनुभूतियों की कथाएं
विरह का दर्द और
मिलन सा सुकून लिखा होता है |

कागज पर छपी होती है जन्मपत्री
छपा होता है समाचार
और छपा होता है पंचांग भी | 

कागज -
जिस पर टिका रहता है सरकारी तंत्र
जो दस्तावेजों की शक्ल में रहता है,
जिसमें दायर की जाती है अर्जी
जिसमें चलते हैं मुक़दमे और
जिसमें लिखकर सुनाई जाती है सजा भी |

कागज, जिससे बच्चे बना लेते हैं कश्ती,
पतंग या गुड़िया
और फिर जो कूड़े में शामिल हो जाता है |
वही कागज जिस पर छपते हैं चुनावी पोस्टर,
गुमशुदा रपट,
भण्डारे की सूचना और
आतंकियों का चेहरा भी |
हाँ, वही कागज जो लिफाफे के रूप में घर पहुँचता है |

कागज जिसका अर्थ होता है
जिससे अर्थ होता है,
जिसे चाव से खा जाती है गौ |

कागज जिस पर लिखा जाता है पहला प्रेमपत्र,
जिसमें छपती हैं पुस्तकें,
जिसमें अक्षरज्ञान होता है |

क्रमशः...

Tuesday 19 November 2013

यही वो कह रही है !!!

नहीं उतरी धरा पर, फिर भी क्या-क्या सह रही है |
मुझे हो जाने दो पैदा यही वो कह रही है ||

मैं माँ तेरा, खिलौना हूँ, मुझे बाँहों में रखना
मैं बाबूजी, हूँ खुशबू सी, मुझे साँसों में रखना,
मैं बनकर तितलियों सी, घर में उड़ना चाहती हूँ
अपने भाईयों से जी भरके लड़ना चाहती हूँ ।

टूटकर बेटी कैसे कतरा-कतरा बह रही है ।
मुझे हो जाने दो पैदा यही वो कह रही है ||

मैं जुगनू बन उडूँगी लेके अपने हौंसले को
प्यार से सजा लूँगी माँ, अपने घर के घौंसले को
मैं तुम्हारी गोद में, बर्फ सी मिलना चाहती हूँ
पुरानी शाख पर नये पुष्पों सी खिलना चाहती हूँ  ।

बाढ़ सी बेटी किनारे तोड़ आगे बह रही है ।
मुझे हो जाने दो पैदा यही वो कह रही है ||

पहाड़ों पर सुबह जैसी, मुझे घर में आने दो माँ
नदियों के हरे जल सी, आँखों में समाने दो माँ,
मुझे भी सुननी है दादी-औ-नानी से कहानियाँ
मुझे रोने दो जी भरकर, जी भरकर रुलाने दो माँ ।

अजन्मी कली, बसन्त में बरसात सी बह रही है  ।
मुझे हो जाने दो पैदा यही वो कह रही है |
मुझे हो जाने दो पैदा यही वो कह रही है ||



Sunday 17 November 2013

आजाद हैं हम ?

आजाद हैं हम
उस परिंदे की तरह
जो कुछ समय हवा में उड़कर
लौट आता है वापस पिंजरे में |

आजादी ऐसी कि
जिस वाहन में सवार हैं
उस पर अधिकार नहीं,
जिसका अधिकार है
उस पर विश्वास नहीं |

आजादी सड़कों पर नारों के रूप में
पोस्टरों की शक्ल में नजर आती है
और मुँह चिढ़ाती है हमें
कहकर कि, हाँ मैं हूँ |

आजादी अख़बारों की हेडलाइन में
कि चित्रकार की
अभिव्यक्ति की आजादी का हुआ है हनन,
बिहार को मुम्बई तक फैलने की आजादी नहीं |

आज बँधा है इंसान
मवेशी बनकर
आजादी के खूंटे से |

आजादी मौजूद है अब भी
संविधान में, धर्म की किताबों में
हकीकत में बिलकुल नहीं |

ये आजादी बेहद मँहगी शै है दोस्तों !


आशीष नैथानी सलिल
नवम्बर १५/२०१३
हैदराबाद  !!