तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Thursday 17 January 2013

मैं बसन्त, फिर आऊँगा !!!

जब ऊषा की श्वेत किरन
गुनगुना अहसास दिलायेगी,
जब ठण्डी-शीतल पुरवाई
अपनी चुभन घटायेगी,
जब बरखा की बूँद-बूँद फिर
प्रीत का पाठ पढ़ायेगी,

मैं भी अपने अहसासों की,

सच्ची कथा सुनाऊँगा ।
मैं बसन्त, फिर आऊँगा  ।।

जब वृक्षों पर बने घरौंदे

तिनके-तिनके टूट गये,
जब तितली के नाजुक रिश्ते
बागीचों से छूट गये,
और मधुप, मधु की खातिर जब
काँटों को ही लूट गये,

तब मैं सूखी शाखों पर फिर,
नये पुष्प बिखराऊँगा ।
मैं बसन्त, फिर आऊँगा ।।


जब भीमकाय
यायावर नीरद
तन का वजन घटायेगा,
जब ये समय ठिठुर-ठिठुरकर
अपने संवाद सुनायेगा,
और चकोर घायल होकर जब
चंदा से ना मिल पायेगा,

मैं उस बेवस पंछी को कुछ,
नये पँख पहनाऊँगा ।
मैं बसन्त, फिर आऊँगा ।।


Wednesday 16 January 2013

शून्य से शून्य तक

जन्म के समय
बेनाम था
न पहचान थी
न अस्तित्व,
शरीर भी
शून्य सा था ।

फिर कुछ वर्ष
दौड़ - भाग हुई,
कदम थमे ।

आखिरी गँगा-स्नान हुआ
और फिर
एक चक्र के बाद
शरीर का तापमान
शून्य हो गया
शरीर, शून्य में विलीन,
शून्य से शून्य तक ।


 

Wednesday 9 January 2013

शहर में !!!

अँधेरी रात में,
रोशन सुबह का खाब अच्छा है ।
बच्चे के चेहरे पे हँसी है,
शहर में,
कुछ तो जनाब अच्छा है ।।


Saturday 5 January 2013

मृत्यु का गीत !!!

मैं लेकर वरमाला
खड़ा रहूँगा,
और तुम आओगी ।
चुपके - चुपके,
दबे पाँव
साँकल खटकाओगी ।

सिर्फ मैं सुन पाऊँगा वो
खटखटाहट ।

जब कुछ जिम्मेदारियाँ
पूरी हो चुकी होंगी,
कुछ होंगी अधूरी
और
कुछ रिश्ते छूट  जायेंगे ।

तुम थामकर हाथ मेरा
ले चलोगी साथ अपने,
बिना मेरी हामी के भी ।

प्राण तुम्हारे पास होंगे,
निर्जीव तन परिवार के
और नाम संसार के ।

फिर अपनी पलकों पर
मखमली चादर बिछाऊँगा मैं,
उस दिन,
मौत तुमको गुनगुनाऊँगा मैं । 



Tuesday 1 January 2013

मैं कवि नहीं हूँ !!!

मैं कवि नहीं हूँ
और ना ही जानता हूँ कुछ
अच्छा लिखना ।

मगर क्या करूँ ?
दिल के इस दर्द को कहाँ उड़ेलूँ  ?
और किसे सुनाऊँ अपना सुख-दुःख ?

घर से लेकर शहर तक,
अमृत से लेकर जहर तक,
और सृजन से लेकर कहर तक,
कुछ कहना चाहता हूँ,
सब कुछ कहकर भी मैं
चुप रहना चाहता हूँ ।

मैं नहीं रखता शौक शराब का
और ना ही है कोई मित्र करीबी
भावनायें बाँटने को ।


फिर लेकर टुकड़ा कागज़ का
और कलम,
बैठता हूँ छज्जे पर ।
सच में बड़ी तसल्ली मिलती है
एक बेदाग़ कागज़ पर
काली स्याही पोत देने से ।

आड़ी-तिरछी लकीरें खींच देता हूँ,
इसी कोशिश में कि
शायद कोई कविता बन पड़े ।



" नववर्ष की शुभकामनाओं सहित