मैं तब बे-रोकटोक चला जाता था
नुक्कड़ पर
२ रुपये की चाय पीने ।
कभी 'एक बटा दो' चाय भी पीनी पड़ी;
जब रास्ते में मिल जाता
कोई दोस्त-यार
तो चाय के हिस्से हो जाते,
कभी 'दो बटा तीन' भी ।
अब ऐसे किसी ठेले पर खड़ा होने में
महसूस होती है शर्म,
और लगा रहता है डर कि
कहीं कोई देख न ले,
कोई सहकर्मी या ड्राइवर,
चौकीदार या रसोईया,
कोई भी जान-पहचान वाला
देख लेगा तो क्या सोचेगा ?
बस इसी लाज-शर्म से
जाता हूँ किसी ऐसी जगह
जहाँ मिलती है मँहगी और बेस्वाद 'कॉफ़ी',
जिसे पीकर ऐसा मुँह बनाना होता है
कि, वाह बहुत लजीज है ।
मगर सच तो ये है कि वो
नुक्कड़ के २ रूपए इन वातानुकूलित होटलों के
१०० रुपयों से कहीं अधिक स्वादिष्ट थे ।
फिर शायद वो जायका
लौटे न लौटे ।
नुक्कड़ पर
२ रुपये की चाय पीने ।
कभी 'एक बटा दो' चाय भी पीनी पड़ी;
जब रास्ते में मिल जाता
कोई दोस्त-यार
तो चाय के हिस्से हो जाते,
कभी 'दो बटा तीन' भी ।
अब ऐसे किसी ठेले पर खड़ा होने में
महसूस होती है शर्म,
और लगा रहता है डर कि
कहीं कोई देख न ले,
कोई सहकर्मी या ड्राइवर,
चौकीदार या रसोईया,
कोई भी जान-पहचान वाला
देख लेगा तो क्या सोचेगा ?
बस इसी लाज-शर्म से
जाता हूँ किसी ऐसी जगह
जहाँ मिलती है मँहगी और बेस्वाद 'कॉफ़ी',
जिसे पीकर ऐसा मुँह बनाना होता है
कि, वाह बहुत लजीज है ।
मगर सच तो ये है कि वो
नुक्कड़ के २ रूपए इन वातानुकूलित होटलों के
१०० रुपयों से कहीं अधिक स्वादिष्ट थे ।
फिर शायद वो जायका
लौटे न लौटे ।

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय !! :)
ReplyDeletesahi baat aaj ka haal yahi hai
ReplyDeleteशुक्रिया भाई श्रेय !
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