मैंने महसूस किया अपनी नकली कविता की पंक्तियों को
मँहगे आवरण में लिपटे सस्ते माल की तरह,
मैंने लम्बे समय तक धूल से वह वस्तु बचाये रखी
जो शायद उतनी कीमती नहीं थी |
मैंने महसूस किया कि जिसे मैं,
मैं-मैं लिखता रहा
वह अंत में कोई और निकला
जिसे मैं या तो पहचान न सका
या समय के साथ भूल सा गया |
मैंने कागजों पर जिक्र किया सलीके से बने तालाबों का
इस जिक्र में जमीन गाँव की थी
पर तालाब कुछ-कुछ पाँच सितारा होटलों के स्वीमिंग पूल जैसा |
मैंने विदेशी कुत्ते को सहलाते हुए मवेशियों के बारे में रचा
सोफे पर पैर पसारकर कहवा पीते हुए
मैं आलसी बैल की नस्ल को ‘पमेलियन’ तक लिख गया,
मैं अपनी ढोंगी शहरी सभ्यता के चलते गोबर न लिख पाया
मैं डरता रहा अपनी मँहगी कलम के बदबूदार हो जाने से
और इस गंध से सरस्वती के प्राण त्याग देने के भय से |
स्कूल से चुराई हुई रंगीन चौकों का
बुझे बीड़ी के टुकड़ों को फिर से लाल करने का
अपनी कक्षा में फिसड्डी होने का,
मैंने कभी जिक्र करना उचित नहीं समझा
या यूँ कह लें
मैंने ये बातें समझदारी से छिपा ली |
मैं कंचे, गिल्ली-डंडे की बलि चढ़ाकर क्रिकेट-क्रिकेट चिल्लाया
कुछ दिन सिक्कों को सामने बने छिद्र में डालने वाला खेल खेला
माचिस के पत्तों की ताश भी खेली
पत्थरों की बट्टियाँ भी
मौजे से बनी गेंद और पिट्ठू भी,
मगर मैंने बराबर ध्यान रखा कि
मेरा देहातीपन गले में बँधे ताबीज की तरह झाँकने न लगे |
दरअस्ल मैं तुलसी-पीपल तो लिख ही नहीं पाया
स्याही में निब डुबो-डुबोकर
सिर्फ धन-वृक्ष लिखता रहा |
मैं अपनी पैंट के छिद्रों को शब्दों से ढाँपता रहता
जैसे माँ रफू किया करती थी,
मगर मेरे ढाँपनेपन में
वो सलीके वाला रफूपन हमेशा नदारत रहा |
किसान काका के दर्द को लिखते हुए
मैंने अपने गालों पर कुटिल हँसी महसूस की
उसके दर्द की कराह पर
स्वयं के होंठों पर तर्जनी रख दी
और फिर शहरी बनने का स्वाँग करता रहा,
न मेरा अधकचरा शहरीपन उसकी तकलीफ कम कर पाया
न मेरा भीतरी गँवारपन उसकी जान बचा पाया |
मैं भीतर ही भीतर खेत के पुस्तों सा टूटता रहा
किताब की जिल्द सा उधड़ता रहा
दरकता रहा समुद्रतट पर बनी मूरत जैसा
सावन के धारों सा बहता रहा, अनवरत, अकेला
मैं शहर में रहा खोखली शान से
सम्पन्नता के दरमियान,
मैं विलासिता की सीमा पर सुखमय जीवन गुजारता रहा
और फिर उसी मँहगी कलम से
‘सी.एफ.एल.’ की दूधिया रौशनी में
एक गरीब की कविता लिखता रहा |
आशीष नैथानी ‘सलिल’
हैदराबाद (मई,९/२०१४)
मँहगे आवरण में लिपटे सस्ते माल की तरह,
मैंने लम्बे समय तक धूल से वह वस्तु बचाये रखी
जो शायद उतनी कीमती नहीं थी |
मैंने महसूस किया कि जिसे मैं,
मैं-मैं लिखता रहा
वह अंत में कोई और निकला
जिसे मैं या तो पहचान न सका
या समय के साथ भूल सा गया |
मैंने कागजों पर जिक्र किया सलीके से बने तालाबों का
इस जिक्र में जमीन गाँव की थी
पर तालाब कुछ-कुछ पाँच सितारा होटलों के स्वीमिंग पूल जैसा |
मैंने विदेशी कुत्ते को सहलाते हुए मवेशियों के बारे में रचा
सोफे पर पैर पसारकर कहवा पीते हुए
मैं आलसी बैल की नस्ल को ‘पमेलियन’ तक लिख गया,
मैं अपनी ढोंगी शहरी सभ्यता के चलते गोबर न लिख पाया
मैं डरता रहा अपनी मँहगी कलम के बदबूदार हो जाने से
और इस गंध से सरस्वती के प्राण त्याग देने के भय से |
स्कूल से चुराई हुई रंगीन चौकों का
बुझे बीड़ी के टुकड़ों को फिर से लाल करने का
अपनी कक्षा में फिसड्डी होने का,
मैंने कभी जिक्र करना उचित नहीं समझा
या यूँ कह लें
मैंने ये बातें समझदारी से छिपा ली |
मैं कंचे, गिल्ली-डंडे की बलि चढ़ाकर क्रिकेट-क्रिकेट चिल्लाया
कुछ दिन सिक्कों को सामने बने छिद्र में डालने वाला खेल खेला
माचिस के पत्तों की ताश भी खेली
पत्थरों की बट्टियाँ भी
मौजे से बनी गेंद और पिट्ठू भी,
मगर मैंने बराबर ध्यान रखा कि
मेरा देहातीपन गले में बँधे ताबीज की तरह झाँकने न लगे |
दरअस्ल मैं तुलसी-पीपल तो लिख ही नहीं पाया
स्याही में निब डुबो-डुबोकर
सिर्फ धन-वृक्ष लिखता रहा |
मैं अपनी पैंट के छिद्रों को शब्दों से ढाँपता रहता
जैसे माँ रफू किया करती थी,
मगर मेरे ढाँपनेपन में
वो सलीके वाला रफूपन हमेशा नदारत रहा |
किसान काका के दर्द को लिखते हुए
मैंने अपने गालों पर कुटिल हँसी महसूस की
उसके दर्द की कराह पर
स्वयं के होंठों पर तर्जनी रख दी
और फिर शहरी बनने का स्वाँग करता रहा,
न मेरा अधकचरा शहरीपन उसकी तकलीफ कम कर पाया
न मेरा भीतरी गँवारपन उसकी जान बचा पाया |
मैं भीतर ही भीतर खेत के पुस्तों सा टूटता रहा
किताब की जिल्द सा उधड़ता रहा
दरकता रहा समुद्रतट पर बनी मूरत जैसा
सावन के धारों सा बहता रहा, अनवरत, अकेला
मैं शहर में रहा खोखली शान से
सम्पन्नता के दरमियान,
मैं विलासिता की सीमा पर सुखमय जीवन गुजारता रहा
और फिर उसी मँहगी कलम से
‘सी.एफ.एल.’ की दूधिया रौशनी में
एक गरीब की कविता लिखता रहा |
आशीष नैथानी ‘सलिल’
हैदराबाद (मई,९/२०१४)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (09-05-2014) को "गिरती गरिमा की राजनीति" (चर्चा मंच-1607) पर भी है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय डॉ. शास्त्री जी !
Deleteअपनी धरती की एक सुगंघ लिये सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद कविता जी !
Deleteजबर्दस्त भावना के साथ रचित कविता।
ReplyDeleteधन्यवाद विकेश जी !
Deleteहम सब एक दोहरी / तिहरी जिंदगी जीते हैं. बढ़िया कविता.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
धन्यवाद घुघूती बासूती जी !!
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