जाने कब कोई अपना हो जाता है
इक चेहरा दिल का टुकड़ा हो जाता है |
कभी-कभी घर में ऐसा हो जाता है
सबका एक अलग कमरा हो जाता है |
जज्बों की बाढ़ आती है पलभर और फिर
‘धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है |’
हँसी-ख़ुशी सब कुछ रहती है सपनों में
सुब्ह उठूँ तो सब कूड़ा हो जाता है |
बेटा जब रिश्तों की कद्र नहीं करता
सच तब कड़वे से कड़वा हो जाता है |
सहर नहीं होती तन्हाई की शब की
कभी-कभी मौसम को क्या हो जाता है |
याद कभी तो हाल समझ मेरे दिल का
यादों से इन्सां बूढ़ा हो जाता है |
आशीष नैथानी 'सलिल'
'लफ्ज़' तरही १३ से
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनायें।
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया राजेन्द्र जी !
Deleteराखी की शुभकामनाएं !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (11-08-2014) को "प्यार का बन्धन: रक्षाबन्धन" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1702 पर भी होगी।
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भाई-बहन के पवित्र प्रेम के प्रतीक
पावन रक्षाबन्धन पर्व की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत शुक्रिया डॉ. मयंक जी !
Deleteरक्षाबंधन की शुभकामनाएं !
वाह बहुत उम्दा।
ReplyDeleteधन्यवाद् आशा जी !
Deleteबहुत ही उम्दा ग़ज़ल ... हर शेर हकीकत लिए हुए ...
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया दिगंबर जी !
Deleteबहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...सभी अशआर दिल को छूते हुए...
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया कैलाश जी !
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteरक्षाबंधन की शुभकामनाएँ !
शुक्रिया प्रतिभा जी !
Deleteरक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएं !!
उम्दा ... जीवन का कड़वा सच .. मीठे सुर में :)
ReplyDeleteसराहना हेतु शुक्रिया सुनीता जी !
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