सीढ़ियों पर चढ़ता हूँ
तो सोचता हूँ माँ के बारे
कैसे चढ़ती रही होगी पहाड़ |
जेठ के उन तपते घामों में
जब मैं या दीदी या फिर छोटू बीमार पड़े होंगे
तो कैसे हमें उठाकर लाती रही होगी
हमारा लाश सा बेसुध तन
डॉक्टर के पास |
घास और लकड़ी के बड़े-बड़े गठ्ठर
चप्पल जितनी चौड़ी पगडंडियों पर लाना
कोई लतीफ़ा
तो न रहा होगा
वो भी तब जब कोई ऊँचाई से खौफ़ खाता हो |
जंगलों की लाल तपती धूप
नई
और कमजोर माँ पर रहम भी न करती रही होगी
माँ के साँवलेपन में ईष्टदेव सूरज
करीने से काजल मढ़ते होंगे
और माँ उन्हें सुबह-सुबह ठंडा जल पिलाती होगी |
पूर्णिमा पर चाँद की पूजा करने वाली
अँधेरे में डरते-डरते छत पर जाती होगी
और भागती होगी पूजा जल्दी से निपटाकर
डर
से - जैसे सन्नाटा पीछा कर रहा हो,
खुद को सँभालती हुई तंग छज्जे पर |
हममें से कोई रो पड़ता
और उसकी नींद स्वाह हो जाती |
हमें सुलाने के लिए कभी-कभी
रेडियो चलाती
धीमी आवाज में गढ़वाली गीत सुनती,
गुनगुनाती भी |
उन पहाड़ों की परतों के पार
शायद ही दुवाएँ, प्रार्थनाएँ जाती रही होंगी
जाती थी सिर्फ एक रोड़वेज़ की बस
सुबह-सुबह
जो कभी अपनों को लेकर नहीं लौटती थी |
पिताजी एक गरीब मुलाजिम रहे,
आप
शायद दोनों का अर्थ बखूबी जानते होंगे
गरीब
का भी और मुलाजिम का भी |
छब्बीस की उम्र में
चार कदम चलकर थकने लगता हूँ मैं
साँस किसी बच्चे की तरह
फेफड़ों में धमाचौकड़ी करने लगती है,
बात-बात
पर मैं अक्सर बिखर सा जाता हूँ |
क्या इसी उम्र में माँ भी कभी निराश हुई होगी
अपने तीन दुधमुँहे बच्चों से,
पति का पत्र न मिलने की चिन्ता भी बराबर रही होगी |
थकता, टूटता हूँ तो करता हूँ माँ से बातें
(फोन पर ही सही)
निराशा धूप निकलते ही
कपड़ों के गीलेपन के जैसे गायब हो जाती है,
सोचता हूँ
वो किससे बातें किया करती होगी तब
दुःख
दर्द में
अवसाद की घड़ियों में,
ससुराल की तकलीफ़ किसे कहती होगी
वो जिसकी माँ उसे ५ साल में ही छोड़कर चल बसी थी |
आशीष नैथानी
मार्च/२३/२०१४
हैदराबाद !!
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