तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Friday, 18 August 2017

लक्ष्मण सिंह बटरोही जी की पोस्ट !!

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संभावनाओं से भरपूर रचनाकार : स्वाति मेलकानी (१९८४) और आशीष नैथानी (१९८८)

{ इस पोस्ट में स्वाति जी के रचनाकर्म और उनकी कुछ चुनिन्दा कविताओं का भी जिक्र है, जिसे कॉपीराईट के तहत प्रयोग नहीं कर रहा हूँ. स्वाति जी की कविताएँ ऊपर दिए लिंक पर पढ़ी जा सकती हैं } 


(2) आशीष नैथानी 
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आशीष नैथानी (जन्म : 8 जुलाई, 1988) के साथ मेरा परिचय अरुण देव के चर्चित ब्लॉग 'समालोचन' में प्रकाशित उनकी कविताओं के माध्यम से हुआ. वो हैदराबाद में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. उनके लेखन से लगता है कि उनकी जड़ें गढ़वाल के ग्रामीण परिवेश में हैं. शुरू-शुरू में ऐसा लग सकता है कि उनकी कविताओं का स्वर नोस्तेल्जिक है, मगर अगली कविताओं में बहुत साफ हो जाता है कि वे अपनी जड़ों के माध्यम से व्यापक मानवीय सन्दर्भों को उद्घाटित कर रहे होते हैं. 'मैं जहाँ से आया हूँ' उनके अपने रचना-स्रोतों के बीच से अंकुरित कविता है, जिसमें निश्चय ही स्मृतियाँ हैं मगर कोरी यादें नहीं, मानो रचनाकार अपने साथ अपने पूरे परिवेश के साथ उपनी उपस्थिति दर्ज करता है.
आशीष की एक कविता है 'पहाड़े'. इसमें तीन से लेकर बयालीस तक के पहाड़ों के जरिए लेखक अपने जिए और सीखे हुए गणित को ऐसे पेश करता है कि पहाड़ का विसंगतिपूर्ण गणित ही उजागर हो जाता है. शब्द और अंक के बीच का यह सहभाव हिंदी कविता में कम ही देखने को मिलता है. साहित्य और विज्ञान तथा दूसरी शाखाओं को अलग-अलग चूल्हों के रूप में देखने की हिंदी समाज की दुराग्रहता की विडंबना को आशीष की कविताओं में देखा जा सकता है. विषय आदमी को जोड़ते हैं, न कि उनकी अलग पहचान बनाते.

नमूने के तौर पर उनकी कुछ कविताएँ पेश हैं.


मैं जहाँ से आया हूँ
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वहाँ आज भी सड़क किनारे नालियों का जल
पाले से जमा रहता है आठ-नौ महीने,
माएँ बच्चों को पीठ पर लादे लकड़ियाँ बीनती हैं
स्कूली बच्चों की शाम रास्तों पर दौड़ते-भागते-खेलते बीतती है
वहाँ अब भी धूप उगने पर सुबह होती है
धूप ढलने पर रात

वहाँ अब भी पेड़ फल उगाने में कोताही नहीं करते
कोयल कौवे तोते पेड़ों पर ठहरते हैं
कौवे अब भी खबर देते हैं कि मेहमान आने को हैं,
बल्ब का प्रकाश वहाँ पहुँच चुका है फिर भी
कई रातें चिमनियों के मंद प्रकाश में खिलती हैं, 
तितलियों का आवारापन अब भी बरकरार है
उतने ही सजीले हैं उनके परों के रंग आज भी
समय से बेफिक्र मवेशी जुगाली करते हैं रात-रातभर

बच्चे अब भी जिज्ञासू हैं जुगनु की रौशनी के प्रति
वहाँ हल, कुदाल, दराँती प्रयोग में है
वहाँ प्यार, परिवार, मौसम, जीवन जैसी कई चीजें ज़िन्दा हैं

शहर के घने ट्रैफिक में फँसा एक मामूली आदमी
कुछेक सालों में कीमती सामान वहाँ छोड़ आया हैं
मैं जहाँ से आया हूँ
और वापसी का कोई नक्शा भी नहीं है

मेरी स्थिति यह कि
लैपटॉप के एक नोटपैड में ऑफिस का जरुरी काम
और दूसरे नोटपैड में कुछ उदास शब्दों से भरी कविता लिखता हूँ, 
मेरे लिए यही जीवन का शाब्दिक अर्थ हो चला है

किन्तु कहीं दूर अब भी
मिट्टी के चूल्हे पर पक रही होगी मक्के की रोटी
पानी के श्रोतों पर गूँज रही होगी हँसी
विवाह में कहीं मशकबीन बज रही होगी
दुल्हन विदा हो रही होगी,
पाठशालाओं में बच्चे शैतानी कर रहे होंगे
प्रेम किसी कहानी की आधारशिला बन रहा होगा
इंद्रधनुष बच्चों की बातों में शामिल होगा
खेत खिल रहे होंगे रंगों से
पक रहे होंगे काफल के फल दूर कहीं
या कहूँ, जीवन पक रहा होगा

दूर जंगल में बुराँस खिल रहा होगा
जीवन का बुराँस.

उतरना
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उतरना कितना आसान होता है
कितनी सहजता से उतरती है नदी
कितनी आसानी से लुढ़कते हैं पत्थर चट्टानों से
और कितने बेफ़िक्र होकर गिरते हैं आँसू

कुछेक दिनों में उतर जाता है वसंत वृक्षों से
ख्व़ाब उतर जाते हैं पग-पग असफलताओं के बाद
और बात-बात पर उतर जाते हैं चेहरे में संजोये हुए रंग

इसके उलट चढ़ना कितनी दुरूह प्रक्रिया है

शहर से लौटकर
पहाड़ न चढ़ पाने के बाद
महसूस हुआ
कि उतरना किस कदर आसान है
और आसान चीजें अक्सर आसानी से अपना ली जाती हैं.

माँ और पहाड़
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सीढ़ियों पर चढ़ता हूँ
तो सोचता हूँ माँ के बारे
कैसे चढ़ती रही होगी पहाड़ .

जेठ के उन तपते घामों में
जब मैं या दीदी या फिर छोटू बीमार पड़े होंगे
तो कैसे हमें उठाकर लाती रही होगी
हमारा लाश सा बेसुध तन
डॉक्टर के पास .

घास और लकड़ी के बड़े-बड़े गठ्ठर
चप्पल जितनी चौड़ी पगडंडियों पर लाना
कोई लतीफ़ा तो न रहा होगा
वो भी तब जब कोई ऊँचाई से खौफ़ खाता हो .

जंगलों की लाल तपती धूप
नई और कमजोर माँ पर रहम भी न करती रही होगी
माँ के साँवलेपन में ईष्टदेव सूरज
करीने से काजल मढ़ते होंगे
और माँ उन्हें सुबह-सुबह ठंडा जल पिलाती होगी .

पूर्णिमा पर चाँद की पूजा करने वाली
अँधेरे में डरते-डरते छत पर जाती होगी
और भागती होगी पूजा जल्दी से निपटाकर
डर से - जैसे सन्नाटा पीछा कर रहा हो,
खुद को सँभालती हुई तंग छज्जे पर .

हममें से कोई रो पड़ता
और उसकी नींद स्वाह हो जाती .

हमें सुलाने के लिए कभी-कभी
रेडियो चलाती
धीमी आवाज में गढ़वाली गीत सुनती,
गुनगुनाती भी .

उन पहाड़ों की परतों के पार
शायद ही दुवाएँ, प्रार्थनाएँ जाती रही होंगी
जाती थी सिर्फ एक रोड़वेज़ की बस
सुबह-सुबह
जो कभी अपनों को लेकर नहीं लौटती थी .

पिताजी एक गरीब मुलाजिम रहे,
आप शायद दोनों का अर्थ बखूबी जानते होंगे
गरीब का भी और मुलाजिम का भी .

छब्बीस की उम्र में
चार कदम चलकर थकने लगता हूँ मैं
साँस किसी बच्चे की तरह
फेफड़ों में धमाचौकड़ी करने लगती है,
बात-बात पर मैं अक्सर बिखर सा जाता हूँ .

क्या इसी उम्र में माँ भी कभी निराश हुई होगी
अपने तीन दुधमुँहे बच्चों से,
पति का पत्र न मिलने की चिन्ता भी बराबर रही होगी .

थकता, टूटता हूँ तो करता हूँ माँ से बातें
(फोन पर ही सही)
निराशा धूप निकलते ही
कपड़ों के गीलेपन के जैसे गायब हो जाती है,
सोचता हूँ
वो किससे बातें किया करती होगी तब
दुःख दर्द में
अवसाद की घड़ियों में,
ससुराल की तकलीफ़ किसे कहती होगी
वो जिसकी माँ उसे ५ साल में ही छोड़कर चल बसी थी .

पहाड़े
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उन दिनों पहाड़े याद करना
मुझे दुनिया का सबसे मुश्किल काम लगता था,
पहाड़े सबसे रहस्यमयी चीज .

९ के पहाड़े से तो मैं हमेशा चमत्कृत रहा
वो मुझे अहसास दिलाता
एक सुसंस्कृत बेटे का
जो घर से बाहर जाकर भी
घर के संस्कार न भूले .

मैं देखता कि कैसे
६ के पहाड़े में आने वाली सँख्यायें
३ के पहाड़े में भी आती
मगर छोटे-छोटे क़दमों में,
मुझे लगता एक पिता
अपने बच्चे की कलाई थामे
१२, १८, २४ वाली धरती पर कदम रख रहा है
और बच्चा
६, ९, १२ वाली धरती पर,
पिता के दो क़दमों के बीच की दूरी
बच्चे के क़दमों की दूरी की दूनी रहती .

१० का पहाड़ा हुआ करता था मासूम
पहली पंक्ति में बैठने वाले बच्चे की तरह
जिसकी ऐनक नाक पर टिकी होती
जो बालों पर कड़वा तेल पोतकर आता
और बाल ख़राब होने पर बहुत रोता था .

१७ का पहाड़ा सबसे बिगड़ैल
गुण्डे प्रवृत्तिके छात्र की तरह .

सर्दियों में हम धूप में बैठकर गणित पढ़ते
बस्ते में रहती एक पट्टीपहाड़ा
जिसे हम रटते रहते,
मौखिक परीक्षा में १९ का पहाड़ा पूछा जाता
सुनाने पर पूरे २० अंक मिलते .

कभी-कभी नगर में पहाड़ा प्रतियोगिता होती
मैं २५ तक पहाड़े याद करता
और देखता कि कुछ बच्चों को ४२ का भी पहाड़ा याद है,
हालाँकि समय गुजरते उन्हें भी २५ तक ही ठीक से पहाड़े याद रहते .

मुझे २५ के पहाड़े से अगाध प्रेम रहा
जो बरकरार है .

उन दिनों
पहाड़ों की गुनगुनी धूप में
पहाड़े याद करना
जीवन की सबसे बड़ी चुनौती थी .

सोचता हूँ फिर से वे दिन मिल जाएँ
फिर से मिल जाय पीठ पर हाथ फेरती गुनगुनी धूप
मास्टर जी की डाँट,
अबकी बार इन चुनौतियों के बदले
मैं भी ४२ तक पहाड़े याद कर लूँगा
कभी न भूलने के लिये .
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