तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Friday 18 August 2017

बयान !!

प्रकृति के बीच अंकुरित संस्कारों का ताजा संस्करण हैं आशीष - बटरोही !!

आशीष नैथानी (जन्म : 8 जुलाई, 1988) के साथ मेरा परिचय अरुण देव के चर्चित ब्लॉग 'समालोचन' में प्रकाशित उनकी कविताओं के माध्यम से हुआ. वो हैदराबाद में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. उनके लेखन से लगता है कि उनकी जड़ें गढ़वाल के ग्रामीण परिवेश में हैं. शुरू-शुरू में ऐसा लग सकता है कि उनकी कविताओं का स्वर नोस्तेल्जिक है, मगर अगली कविताओं में बहुत साफ हो जाता है कि वे अपनी जड़ों के माध्यम से व्यापक मानवीय सन्दर्भों को उद्घाटित कर रहे होते हैं. 'मैं जहाँ से आया हूँ' उनके अपने रचना-स्रोतों के बीच से अंकुरित कविता है, जिसमें निश्चय ही स्मृतियाँ हैं मगर कोरी यादें नहीं, मानो रचनाकार अपने साथ अपने पूरे परिवेश के साथ उपनी उपस्थिति दर्ज करता है.
आशीष की एक कविता है 'पहाड़े'. इसमें तीन से लेकर बयालीस तक के पहाड़ों के जरिए लेखक अपने जिए और सीखे हुए गणित को ऐसे पेश करता है कि पहाड़ का विसंगतिपूर्ण गणित ही उजागर हो जाता है. शब्द और अंक के बीच का यह सहभाव हिंदी कविता में कम ही देखने को मिलता है. साहित्य और विज्ञान तथा दूसरी शाखाओं को अलग-अलग चूल्हों के रूप में देखने की हिंदी समाज की दुराग्रहता की विडंबना को आशीष की कविताओं में देखा जा सकता है. विषय आदमी को जोड़ते हैं, न कि उनकी अलग पहचान बनाते.

डॉ. लक्ष्मण सिंह बिष्ट 'बटरोही'
पूर्व डीन कुमाऊँ विश्वविद्यालय,
नैनीताल (उत्तराखंड)



लेखक की अपनी ज़मीन ही उसकी कविता का पर्यावरण तैयार करती है । पहाड़ों की ताजगी के आज भी ज़िंदा अहसास को इन कविताओं में महसूस किया जा सकता है । वह जीवन के हर अनुभव को एक ख़ास संदर्भ देती है । महानगरों में बासी हो रही प्रगति की रफ़्तार के बिंब तैयार कराती है । मानवीय संबंधों को कोरे नगद-कौड़ी के रिश्तों में तब्दील होने से बचाती है । लेकिन यही सोच कर अफसोस होता है कि उतरे हुए का वापस लौटना उतार की बुराइयों के साथ लौटना भी होता है । संचार के विस्तार ने यथार्थ में तो किसी को अछूता नहीं छोड़ा है, लेकिन स्मृतियां हैं कि रचाव के अकूत स्रोत की तरह बनी रहती है । अाशीष जी को इन सुंदर अहसासों से लबरेज़ कविताओं के लिये बधाई ।

अरुण माहेश्वरी
वाणी प्रकाशन



तृषा रूप में समस्त जगत में व्यापने वाली बेचैनी आशीष के कवि की मूलभूत बेचैनी है. मनुष्य और मनुष्य के बीच लगातार खाई बढती जा रही है और आपसी रिश्ते-नाते छीजते जा रहे हैं. ऐसे में यह युवा कवि संबंधों की मिठास, प्रेमपूर्ण विश्वास और अपनेपन की प्यास को कविता का कलेवर प्रदान करने की सहज चेष्टा में संलग्न दिखाई देता है. संवेदनशीलता, परस्पर सहानुभूति और सुख-दुःख के रिश्ते फिर से हरे-भरे हो जाएँ, इसके लिए वर्षा की कामना कवि की प्यास का एक पहलू है. किशोरावस्था का आकर्षण, अल्हड़ रूप की आराधना, दर्शन की आकाँक्षा, मिलन की प्रतीक्षा, संयोग का उन्माद, वियोग का अवसाद, उपालंभ और शिकायतें, जागते-सोते देखे गये सपने और छोटी-छोटी घटनाओं के स्मृति कोष में अंकित अक्स आशीष की तिश्नगी का दूसरा पहलू है. देश-दुनिया में सामाजिक न्याय की कमी, मानवाधिकारों का हनन, और तो और बच्चों का शोषण, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, धर्मोन्माद और युद्ध से उत्पन्न होने वाली असुरक्षा तथा लोकतंत्र की हत्या करती हुई तानाशाही से पैदा होने वाली चिंता युवा कवि सलिल की अबूझ पिपासा का तीसरा आयाम है. इसके अतिरिक्त मनुष्य और प्रकृति के अंतर्बाह्य सौन्दर्य के दर्शन से जुड़ा है इस कवि की शाश्वत तृषा का चौथा आयाम.

डॉ. ऋषभ देव शर्मा
पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
हैदराबाद (तेलंगाना)    




अरे, यह तो नील है. नील अर्थात कविता का नील कमल, सच्चा कमल.

नाम आशीष है, कविता का आशीष है, इस पर. आशीष नैथानी की "पहाड़े" पढने के बाद किसी और दुनिया में था, "अम्ल और क्षार" पढ़ते ही चौंका. "दुनिया में क्षारों की घोर कमी महसूस हो रही है" पर ध्यान जाते ही कवि का परिचय देखने की जरुरत महसूस हुई. फिर जाना कि ये जनाब विज्ञान से कविता की प्रयोगशाला में आये हैं और कुछ उम्दा करने का हौसला रखते हैं. वक़्त लगेगा, पर जो उड़ान की शुरुआत है, आश्वस्तकारी है. असल में विज्ञान जीवन का हो या समाज और कलाओं का, उन मनुष्यों को तुरंत गुरुत्वाकर्षण जैसे किसी नियम से अपनी ओर खींच लेता है, जिनके भीतर संवेदना के केंद्र होते हैं.
आशीष की "पहाड़े" के साथ-साथ चलते हुए मैं कविता का पहाड़ा याद करता रहा. कैसे विज्ञान का यह विद्यार्थी पहाड़े में जीवन के पहाड़े की खोज कर रहा है और हमारे आयातित गद्यकविता के महाकवि जीवन की जगह विचार का लोहा कूट रहे हैं. एक यह बिलकुल नया कवि है आशीष. आशीष गणित के "पहाड़ों" की याद के बीच पहाड़ के जीवन और उस जीवन के अच्छे दिनों की याद करने लगते हैं.
"उन दिनों
पहाड़ों की गुनगुनी धूप में
पहाड़े याद करना
जीवन की सबसे बड़ी चुनौती थी.

सोचता हूँ फिर से वे दिन मिल जाएँ
फिर से मिल जाय पीठ पर हाथ फेरती गुनगुनी धूप"

जाहिर है कि आज के मुश्किल दिनों की चुनौती ही कवि को बीते दिनों की याद में ले जाती है. आज के कठिन जीवन के पहाड़े का जिक्र कविता में नहीं है, लेकिन कविता की ध्वनि में आज का संदर्भ मौजूद है. आखिर क्यों वह आज से निकलकर बीते दिनों की याद में जा रहा है. आखिर "पीठ पर हाथ फेरती गुनगुनी धूप" के क्या मायने हैं! कंप्यूटर साइंस के अध्येता आशीष को प्रकृति और जीवन और समाज के कंप्यूटर को बचाने की चिंता है. यह सब बचेगा तो मनुष्य बचेगा. "शेष" कविता की पंक्तियाँ आशीष की चिंता को व्यक्त करती हैं-

"न बचने की कगार पर है -
खेती योग्य जमीन
मृदा का उपजाऊपन
स्वच्छ हवा-जल और जीवन,
मौसम की उँगलियों में संतुलन का चाबुक नहीं बचा

शब्दकोषों में नहीं बचे रास आने वाले शब्द
संसद से गैरहाजिर है संसदीय आचरण"

आशीष की कविता का परिसर संकुचित नहीं है, अपने परिवेश की चौहद्दी में जो-जो संभव है वह तो है ही, माँ है तो बेटियाँ हैं, गाँव है तो शहर है और तो और पूरा देश शामिल हो जाता है जब इरोम शर्मीला पर कविता लिखते हैं. कविता के कंप्यूटर की चौहद्दी असीम हो जाती है. अभी यह शुरुआत है, कविता के शिखरों की चढ़ाई बाकी है और अच्छी बात यह कि पहाड़ के इस कवि के पास हौसले का पहाड़ जस का तस है.

डॉ. गणेश पाण्डेय
दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय
गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)
यात्रा, अंक-१०, जुलाई-दिसंबर २०१५  



हिंदी की नई रचनाशीलता का क्षेत्र ‘सीकरी’ से बाहर का क्षेत्र है अब. आशीष पहाड़ के रहने वाले हैं, उनकी कविताओं में उनका अपना अनुभव तो है ही उसे अभिव्यक्त करने के  हुनर में भी परिपक्वता है. दरअसल ये कविताएँ परायेपन से उपजी भर कविताएँ नही हैं इसमें कथ्य का नेपथ्य अपनी चेतना के साथ मौजूद है.

डॉ. अरुण देव
एसोसिऐट प्रोफ़ेसर
नजीबाबाद (उत्तर प्रदेश)




आशीष नैथानी, संभावनाशील युवा कवि हैं. इधर ग़ज़लों को लेकर भी वे लगातार काम कर रहे हैं. इधर लिख रहे तमाम युवा कवि अपने-अपने ढंग से अपनी कविताओं की जमीन तलाश रहे हैं लेकिन आशीष की कविताओं को पढ़ते हुए यह जरूर कहा जा सकता है कि वे भीड़ के कवि नहीं हैं इसलिए कि उनके पास कविता कहन के साथ कविता की मिट्टी है जिसे वे जीवन अनुभव के ताप से अपने काव्य विवेक-क्षमता से प्रकट करने की कोशिश करते हैं. दरअसल कविता तभी पढ़ी जाती है, स्वीकार होती है जब आप अपने जन के साथ अपनी मिट्टी के लिए लालायित होते हुए लोक की पड़ताल करते हैं और युवा कवि आशीष की कविताएँ उम्मीद जगाती हैं. अभी इनको सब्र से अपनी काव्य यात्रा को छूना है. तमाम कमियों के बाद भी आशीष की कविताओं को पढना अच्छा लग रहा है.

विजय सिंह
सम्पादक सूत्र पत्रिका
जगदलपुर (छत्तीसगढ़)



नैथानी जी की कविताएँ पढ़ी जो पसन्द आई. अब तक मैं उनकी ग़ज़लों  पर मुग्ध था, पर आज लगा कि वे पूर्ण कवि हैं जो विभिन्न शैलियों मेँ लिखते हैँ. एक शैली से बँधा कवि मुझे पूर्ण कवि नहीं लगता.

डॉ. एस. पी. सुधेश
पूर्व प्रोफ़ेसर, जे. एन. यू.
नई दिल्ली





                                                                                                                        आशीष की कविताओं ने प्रभावित किया. परिपक्व अभिव्यक्ति. इन कविताओं को पढ़कर एक ताजगी का अनुभव हुआ. आशीष को हार्दिक शुभकामनाएं. आपसे बहुत उम्मीदें जगी हैं.

कुमार अनुपम
सम्पादक-हिंदी, साहित्य अकादमी
दिल्ली 

6 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-08-2017) को "चीनी सामान का बहिष्कार" (चर्चा अंक 2701) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    स्वतन्त्रता दिवस और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुन्दर ब्लॉग। चर्चा मंच के माध्यम से एक नये ब्लॉग से परिचय कराने के लिये आभार शास्त्री जी ।

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  3. बहुत ही उम्दा विचार आभार ,"एकलव्य"

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