जब बरसातें थम चुकी होंगी
जब तीर्थयात्री और पर्यटक
लौट
चुके होंगे वापस
अपने-अपने
आशियानों में
और
जब माँ गँगा का क्रोध
शान्त
हो चुका होगा,
हमें लौटना होगा पहाड़ ।
फिर
से तलाशनी होगी प्राणवायु
हटाना
होगा मिट्टी-पत्थर से बना मलबा
खोजनी
होगी अपनी बची-खुची जमीन
फिर
से बनाने होंगे उजड़े हुए मकान
टूटे
हुए पुश्ते, टूटी दीवारें,
पुल
और सड़कें ।
फिर
से रखना होगा नींव का पत्थर
फिर
से शुरू करना होगा कोई रोजगार
फिर
से देखने होंगे सपने,
बहते
आँसुओं को पोंछते हुए ।
फिर
से बनायेंगे एक गौशाला
और
पालेंगे मवेशियों को भी ।
हाँ,
समय लगेगा
घाव
उथले
तो हैं नहीं
पूरा
समय लेंगे भरने में,
मगर
जब दर्द कुछ कम होगा
तो खेतों में लहलहा रहा होगा धान
मक्का कोदा झँगोरा और सरसों,
पेड़ों
पर फिर से लद चुके होंगे फल
सेब, आडू और खुबानी के ।
गँगाजल फिर से मीठा हो चुका होगा
बद्री-केदार
में आरतियाँ प्रारम्भ
हो चुकी होंगी ।
बच्चे
फिर से बस्ता सजा रहे होंगे
फिर
से लौट आएगा -
गाय का
रम्भाना
कोयल
की कूक और
बच्चों
की किलकारियाँ ।
पोंछ
डालो अब इन
आँसुओं को
विधाता
की इच्छा के आगे किसी का बस नहीं चलता,
चलो
बनायें एक नया गढ़वाल-कुमाऊँ
चलो
लौट चलें पहाड़ों की ओर ।
आशीष नैथानी ‘सलिल’
२३ जून, २०१३
आपकी यह रचना कल मंगलवार (25 -06-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteशुक्रिया भाई अरुण जी!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है.
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय निहार जी !
Deleteफिर से रखना होगा नींव का पत्थर । बहुत प्रेरक रचना ।
ReplyDeleteशुक्रिया आशा जी !!
Deleteउत्क्रुस्त , भावपूर्ण एवं सार्थक अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें .
शुक्रिया आदरणीय !!
DeleteBahut khoob aashis. badhyi
ReplyDeleteShukriya Bhai !!
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