'तिश्नगी...' युवा कवि आशीष नैथानी 'सलिल' की कविताओं की पहली किताब है । तिश्नगी और सलिल अर्थात प्यास और पानी का विरोधाभास सहज ही ध्यान खींचता है । पर ठीक ही है, पानी दूसरों की प्यास बुझाता है - उसकी अपनी प्यास कभी कहीं बुझती है कि नहीं, कौन जाने ! खैर...
आशीष की ये कविताएँ उस तृषा को शब्दबद्ध करती हैं जिसके कारण हर संवेदनशील प्राणी निरंतर भटक रहा है । पानी पर सदा से यक्षों के पहरे हैं और किसी पांडव तक को अपने युग के प्रश्नों के उत्तर दिए बिना पानी नहीं मिलता। विचित्र विडंबना है, पानी भी है अनंत और प्यास भी है अनंत । भोग चुक जाते हैं, लोग चुक जाते हैं, काल चुक जाता है, देश चुक जाते हैं, तप चुक जाता है, तेज चुक जाते है। कई बार तो जल भी चुक जाता है पर यह निगोड़ी प्यास चुके नहीं चुकती - तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।
तृषा रूप में समस्त जगत में व्यापने वाली बेचैनी आशीष के कवि की मूलभूत बेचैनी है । मनुष्य और मनुष्य के बीच लगातार खाई बढती जा रही है और आपसी रिश्ते-नाते छीजते जा रहे हैं । ऐसे में यह युवा कवि संबंधों की मिठास, प्रेमपूर्ण विश्वास और अपनेपन की प्यास को कविता का कलेवर प्रदान करने की सहज चेष्टा में संलग्न दिखाई देता है । संवेदनशीलता , परस्पर सहानुभूति और सुख-दुःख के रिश्ते फिर से हरे भरे हो जाएँ, इसके लिए वर्षा की कामना कवि की प्यास का एक पहलूहै। किशोरावस्था का आकर्षण, अल्हड़ रूप की आराधना, दर्शन की आकांक्षा, मिलन की प्रतीक्षा, संयोग का उन्माद, वियोग का अवसाद, उपालंभ और शिकायतें, जागते-सोते देखे गए सपने और छोटी छोटी घटनाओं के स्मृति कोश में अंकित अक्स आशीष की तिश्नगी का दूसरा पहलू है । देस-दुनिया में सामाजिक न्याय की कमी, मानवाधिकारों का हनन, और तो और बच्चों का शोषण, सांप्रदायिकता, आतंकवाद, धर्मोन्माद और युद्ध से उत्पन्न होने वाली असुरक्षा तथा लोकतंत्र की हत्या करती हुई तानाशाही से पैदा होने वाली चिंता युवा कवि सलिल की अबूझ पिपासा का तीसरा आयाम है। इसके अतिरिक्त मनुष्य और प्रकृति के अंतर्बाह्य सौंदर्य के दर्शन से जुड़ा है इस कवि की शाश्वत तृषा का चौथा आयाम ।
इस तरह तरह की प्यासको आशीष नैथानी 'सलिल' ने अपनी तरह से अभिव्यक्त किया है । भाषा के मामले में वे तनिक भी कट्टर नहीं हैं । बहती हुई भाषा उन्हें पसंद है जिसमें स्वाभाविक रूप से तत्सम और उर्दू शब्दावली एक साथ चली आती है । शैली के मामले में भी आशीष काफी लोकतांत्रिक हैं। कहीं लोकगीतों का पुट है तो कहीं शेरोशायरी का अंदाज । पर प्यास अपनी जगह है । यह प्यास अंधेरे में प्रकाश के स्वप्न दिखाती है - "अंधेरी रात में / रोशन सुबह का ख्वाब अच्छा है /बच्चे के चेहरे पे हँसी है, / शहर में / कुछ तो जनाब अच्छा है ।"
आशीष की ये कविताएँ उस तृषा को शब्दबद्ध करती हैं जिसके
तृषा रूप में समस्त जगत
इस तरह तरह की प्यास
...... तो जनाब,
16 मार्च, 2013 - डॉ. ऋषभ देव शर्मा
आचार्य एवं अध्यक्ष
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
खैरताबाद, हैदराबाद
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