तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Thursday 16 June 2016

तीन बरस त्रासदी के

घाव अब धीरे-धीरे भरने लगे हैं.
एक सुकूं भरे कल की उम्मीद आँखों में है. जहाँ ज़मीन से मिट्टी बह चुकी थी वहाँ पुनः हरियाली खिल रही होगी. इस बसंत फ्योंली के फूल भी खिले होंगे. बर्फ़ पर धूप उसी सुन्दरता से चमक रही होगी. जीवन पुनः चलने लगा होगा.

उस त्रासद को याद करते हुए -

पहाड़ों पर सुनामी थी या था तूफ़ान पानी में
बहे बाज़ार घर-खलिहान और इन्सान पानी में

बड़ा वीभत्स था मंज़र जो देखा रूप गंगा का
किसी तिनके की माफ़िक बह रहा सामान पानी में

बहुत नाजुक है इन्सानी बदन इसका भरोसा क्या
भरोसा किसपे हो जब डूबते भगवान पानी में

इधर कुछ तैरती लाशें उधर कुछ टूटते सपने
न जाने लौटकर आएगी कैसे जान पानी में

बहुत मुश्किल है अपनी आँख के पानी को समझाना
अचानक दफ्न कैसे होती है मुस्कान पानी में

आशीष नैथानी !!

अनुभूति में यह ग़ज़ल यहाँ पढ़ें


2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-06-2016) को "वाह री ज़िन्दगी" (चर्चा अंक-2377) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. त्रासदी पर बढ़िया ग़ज़ल

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