तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Saturday, 17 January 2015

सरहद के आर-पार !!

बनाने वाले ने पहाड़ों से सरहदें बनाई
नदियों से खींची थी लकीरें
मगर आदमी-आदमी के मध्य सरहद आदमी ने रची

रंग की सरहद
भाषा की सरहद
सियासी लिप्साओं की सरहद

सरहदें कितनी भी खौफनाक क्यों न हों
धरती दोनों तरफ एक सी है
एक ही किस्म की मिट्टी
एक ही रंग के पहाड़
एक से जंगल
और एक से इंसान

एक से बच्चे
कमोबेश एक से सपने
बुजुर्गों की एक सी प्रतीक्षारत आँखें
दोनों ओर बन्दूकें लिए एक से सैनिक

उजाले में सरहदें बेहद डरावनी लगती हैं
और रात के समय दिखाई नहीं देती |

8 comments:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (19-01-2015) को ""आसमान में यदि घर होता..." (चर्चा - 1863) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. इन सरहदों पे ही कितने खून दबे हैं .... काश इनको कोई मिटा पाता ..
    भावपूर्ण अभिव्यक्ति ...

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