ज़िन्दगी तेरे
ख़ज़ाने में ख़ज़ाने लाखों
ज़िन्दगी, राज़ के भीतर हैं छिपे राज़ कई
हमको उम्मीद
दरख्तों पे लगेंगे फल-फूल
हमको मालूम बहार
आएगी दौड़े-दौड़े
फिर परिंदों के
नशेमन में बजेगा संगीत
फिर से खेतों में
हरी फस्ल उगेगी हरसू
ज़िन्दगी खेल नहीं
दर्द का आसाँ होना
बात ही बात में
यूँ तेरा परेशाँ होना
शोरगुल में जो
दबे ऐसी भी आवाज़ नहीं
मंजिलों तक न
पहुँच पाए वो परवाज़ नहीं
ज़िन्दगी यूँ तो
नहीं कोई मुसाफ़िरखाना
फिर भी कुछ रोज़
तसल्ली से गुजारे जाएँ
धूप जब रेत में
लेटे हुए बच्चों पे लगे
जिस्म चमके कि
कहीं गुल पे रखी हो शबनम
उफ़ ! ये शबनम का
सफ़र चंद घडी का है फ़क़त
और बच्चों की है
उस रेत से यारी गहरी
इतनी कोशिश तो हो
बचपन को सँवारा जाए
ज़िन्दगी क़र्ज़ है, यह क़र्ज़ उतारा जाए
ज़िन्दगी देख रहा
हूँ तेरे चेहरे क्या-क्या
ज़िन्दगी सीख रहा
हूँ मैं म'आनी तेरे ||
आशीष नैथानी 'सलिल'
अप्रैल.२/२०१५
हैदराबाद !!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (04-04-2015) को "दायरे यादों के" { चर्चा - 1937 } पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
शुक्रिया आ. डॉ. साहब !!
Deleteसुन्दर पंक्तियाँ
ReplyDeleteधन्यवाद् ओंकार जी !
Deleteजिन्दगी के माइने अंतिम समय तक समझ नहीं आते ... कुछ क कुछ नया ही मिल जाता है हर बार ... अच्छी नज्म ...
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय दिगंबर जी !! :)
Deleteधूप जब रेत में लेटे हुए बच्चों पे लगे
ReplyDeleteजिस्म चमके कि कहीं गुल पे रखी हो शबनम
उफ़ ! ये शबनम का सफ़र चंद घडी का है फ़क़त
और बच्चों की है उस रेत से यारी गहरी
इतनी कोशिश तो हो बचपन को सँवारा जाए
ज़िन्दगी कर्ज़ है, यह कर्ज़ उतारा जाए
ज़िन्दगी देख रहा हूँ तेरे चेहरे क्या-क्या
ज़िन्दगी सीख रहा हूँ मैं म’आनी तेरे ||