तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Saturday 9 August 2014

ग़ज़ल !!

जाने कब कोई अपना हो जाता है
इक चेहरा दिल का टुकड़ा हो जाता है |

कभी-कभी घर में ऐसा हो जाता है
सबका एक अलग कमरा हो जाता है |

जज्बों की बाढ़ आती है पलभर और फिर
‘धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है |’

हँसी-ख़ुशी सब कुछ रहती है सपनों में
सुब्ह उठूँ तो सब कूड़ा हो जाता है |

बेटा जब रिश्तों की कद्र नहीं करता
सच तब कड़वे से कड़वा हो जाता है |

सहर नहीं होती तन्हाई की शब की
कभी-कभी मौसम को क्या हो जाता है |

याद कभी तो हाल समझ मेरे दिल का
यादों से इन्सां बूढ़ा हो जाता है |

                    आशीष नैथानी 'सलिल'
                    'लफ्ज़' तरही १३ से

एक ग़ज़ल !!

शहर भर का दर्द पीना चाहता हैं
शख़्स कैसा है ये जीना चाहता है |

इत्र से मजदूर का रिश्ता भी कैसा
जो महज बहता पसीना चाहता है |

तीरगी के इस समन्दर में मुसाफ़िर
रौशनी का इक सफ़ीना चाहता है |

इस सियासत में बहुत पत्थर भरे हैं
मुल्क अब कोई नगीना चाहता है |

- आशीष नैथानी सलिल
पुष्पक - अंक २४ (हैदराबाद) से २०१३ में प्रकाशित