नदियों में जल नहीं बचा
दरख्तों पर नहीं बचे फल-फूल
फलों में स्वाद,
फूलों में महक नहीं बची
धरा पर नहीं बचा धैर्य |
नहीं बची फुदकती गौरैया
जुगनू, तितलियाँ
पहाड़ों पर हिमनद
सुदूर बुग्यालों में नहीं बचे ब्रह्म-कमल |
न बचने की कगार पर है -
खेती योग्य जमीन
मृदा का उपजाऊपन
स्वच्छ हवा-जल
और जीवन |
अब ऐसे में
जब प्रकृति स्वयं अप्राकृतिक हो जाय
मानव हो जाय मशीन
ख़त्म हो जाएँ भावनाएँ इन्सानियत और भाईचारे की,
आदमी के भीतर आदमी और
हिंदुस्तान के भीतर हिंदुस्तान बचे रहने की कल्पना
बेमानी नहीं तो और क्या है |
आशीष नैथानी ‘सलिल’
दरख्तों पर नहीं बचे फल-फूल
फलों में स्वाद,
फूलों में महक नहीं बची
धरा पर नहीं बचा धैर्य |
नहीं बची फुदकती गौरैया
जुगनू, तितलियाँ
पहाड़ों पर हिमनद
सुदूर बुग्यालों में नहीं बचे ब्रह्म-कमल |
न बचने की कगार पर है -
खेती योग्य जमीन
मृदा का उपजाऊपन
स्वच्छ हवा-जल
और जीवन |
अब ऐसे में
जब प्रकृति स्वयं अप्राकृतिक हो जाय
मानव हो जाय मशीन
ख़त्म हो जाएँ भावनाएँ इन्सानियत और भाईचारे की,
आदमी के भीतर आदमी और
हिंदुस्तान के भीतर हिंदुस्तान बचे रहने की कल्पना
बेमानी नहीं तो और क्या है |
आशीष नैथानी ‘सलिल’
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