तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Sunday, 31 March 2013

ग़ज़ल - अपनी चादर !!!

अपनी चादर रख झोले में वापस लौट चला हूँ मैं
जो मिट्टी पगली मुझको, जिस मिट्टी का पगला हूँ मैं ।

क्या तारे क्या चन्दा-सूरज सब फीके-फीके से हैं
आज अँधेरी रात को जैसे जुगनू बन निकला हूँ मैं ।

ख़ाब जलेंगे, आँख शमा सी और जिगर होगा धुआँ
अपने और परायों के इस जग में खूब जला हूँ मैं ।

आज मराशिम टूटेंगे, टूटेगी यारी मतलब की
इन रिश्तों के नाम पे जाने कितनी बार छला हूँ मैं ।

वो आये कहने हमसे क्यों बदले-बदले रहते हो
हाँ जबसे देखा तुमको, थोडा-थोडा बदला हूँ मैं ।

एक 'सलिल' बेरंग हुआ पर कर डाले रंगीन कई
काली-काली सूरत में बस थोडा सा उजला हूँ मैं ।

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