एक महल था. महल से लगकर एक झोपड़ी थी. झोपड़ी में एक बूढा रहता था जिसके पास एक खटिया, दो जोड़ी कपड़े और तीन मुर्गियाँ थी. महल में बहुत कुछ था.
हर रात की तरह उस रात सब सोये हुए थे. हवा चल रही थी और चाँद जग रहा था. झोपडी में आग लग गयी. बाँस की दीवारों से लेकर फूस की छत तक, सब जल गए. बूढ़े की आँख खुली तो मुर्गियों को बचा ले आया. झोपडी की आग महल तक पहुँच गयी और फिर...
अगली सुबह, मैदान पर राख के दो टीले मिले. एक बड़ा, एक छोटा. महल का मालिक और वह बूढा अगल-बगल खड़े थे. दोनों के तन पर एक जोड़ी कपड़े थे. मुर्गियाँ दाना खोज रही थी. महल-झोपडी की हकीकत हवा के साथ उड़ गयी. बड़े टीले से अब थी धुँआ रिस रहा था.
उस शाम, बूढ़े ने एक और झोपड़ी बना ली. बीड़ी से तौबा कर ली. महल का मालिक झोपड़ी के भीतर बूढ़े के बगल में सो गया.
आशीष नैथानी | हैदराबाद | नवम्बर-३०/२०१५
आशीष नैथानी | हैदराबाद | नवम्बर-३०/२०१५
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-12-2015) को "कैसे उतरें पार?" (चर्चा अंक-2178) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शुक्रिया !
Deleteसुंदर कथा।
ReplyDeleteशुक्रिया !!
Deleteजिसके पास कुछ नहीं , वो क्या खोएगा
ReplyDeleteशुक्रिया !
Deleteशुक्रिया
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