तुम्हें क्या लगता है
मैं वापस उस जगह नहीं गया
जहाँ आशियाना था तुम्हारा
और मंदिर का रास्ता गुजरता था
ठीक तुम्हारे घर के सामने से ।
हाँ, मैं तब कुछ ज्यादा ही
धार्मिक हुआ करता था
या कहें, धार्मिक बन गया था;
मेरा मंदिर, पूजालय तो मंदिर से
कुछ पहले ही था,
मंदिर तो जाता था
चंद मन्नतें माँगने के लिए,
हाँ, खुदगर्जी तो थी ही
क्या करें, उम्र ही ऐसी थी ।
और याद है एक दिन
जब मैं मंदिर के मुख्य द्वार से
भीतर प्रवेश कर रहा था,
तुम अचानक नजर आ गई थी
मंदिर से बाहर निकलते हुए,
शायद तुम्हें याद न हो
पर मुझे है,
बल्कि मैं तो भूला ही नहीं ।
फिर जब मैं वापस शहर लौटा
तो उसी मोहल्ले गया
जहाँ की हवा कभी तुम्हारे अहसास की
खुशबू से सराबोर रहती थी,
वही गलियाँ, वही घर, वही मंदिर
घर के आगे बाईं ओर खड़ा वही खुबानी का युवा पेड़,
पर न जाने क्यों शांति न मिली
साँसें उखड़ी-उखड़ी सी लगी;
पता चला तुम शहर छोड़कर जा चुकी हो
दूर किसी और शहर में।
दिन का रात में
और रात का दिन में तब्दील होना
मेरे लिए वर्षों के बदलने जैसा था,
सच में,
इतना ही दुखदायी और इंतिजार भरा ।
पर दिन गए, महीने गए और
कई साल भी गए;
इस दौरान उम्र बदली, सूरत बदली
और काम-धाम भी बदल गया;
अगर कुछ नहीं बदला तो तुम्हारा इंतिजार |
मेरी गाडी अक्सर गुजरा करती
तुम्हारे शहर के किनारे से बने बाईपास से
और मुझे अपनी जिंदगी बाईपास होती नजर आती ।
क्रमश: .......
मैं वापस उस जगह नहीं गया
जहाँ आशियाना था तुम्हारा
और मंदिर का रास्ता गुजरता था
ठीक तुम्हारे घर के सामने से ।
हाँ, मैं तब कुछ ज्यादा ही
धार्मिक हुआ करता था
या कहें, धार्मिक बन गया था;
मेरा मंदिर, पूजालय तो मंदिर से
कुछ पहले ही था,
मंदिर तो जाता था
चंद मन्नतें माँगने के लिए,
हाँ, खुदगर्जी तो थी ही
क्या करें, उम्र ही ऐसी थी ।
और याद है एक दिन
जब मैं मंदिर के मुख्य द्वार से
भीतर प्रवेश कर रहा था,
तुम अचानक नजर आ गई थी
मंदिर से बाहर निकलते हुए,
शायद तुम्हें याद न हो
पर मुझे है,
बल्कि मैं तो भूला ही नहीं ।
फिर जब मैं वापस शहर लौटा
तो उसी मोहल्ले गया
जहाँ की हवा कभी तुम्हारे अहसास की
खुशबू से सराबोर रहती थी,
वही गलियाँ, वही घर, वही मंदिर
घर के आगे बाईं ओर खड़ा वही खुबानी का युवा पेड़,
पर न जाने क्यों शांति न मिली
साँसें उखड़ी-उखड़ी सी लगी;
पता चला तुम शहर छोड़कर जा चुकी हो
दूर किसी और शहर में।
दिन का रात में
और रात का दिन में तब्दील होना
मेरे लिए वर्षों के बदलने जैसा था,
सच में,
इतना ही दुखदायी और इंतिजार भरा ।
पर दिन गए, महीने गए और
कई साल भी गए;
इस दौरान उम्र बदली, सूरत बदली
और काम-धाम भी बदल गया;
अगर कुछ नहीं बदला तो तुम्हारा इंतिजार |
मेरी गाडी अक्सर गुजरा करती
तुम्हारे शहर के किनारे से बने बाईपास से
और मुझे अपनी जिंदगी बाईपास होती नजर आती ।
क्रमश: .......
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज शुक्रवार (16-08-2013) को बेईमान काटते हैं चाँदी:चर्चा मंच 1338 ....शुक्रवार... में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी, मेरी इस साधारण सी कविता को चर्चा-मंच तक पहुँचाने हेतु हार्दिक धन्यवाद । :)
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