नमस्कार मित्रों !!
कविता उपजने से लेकर लेखन प्रक्रिया से गुजरते हुए पाठक व समीक्षक तक पहुँचती है तो एक यात्रा पूरी करती है. इस यात्रा के विभिन्न पड़ावों में बहुत से राहगीर मिलते हैं. कवि इस यात्रा में बहुत कुछ सीखता है. मेरी इसी यात्रा में सूत्र समूह सहभागी बना. छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'समकालीन सूत्र' के whatsapp समूह में मेरी कुछ कविताओं पर चर्चा हुई. कवितायेँ व चर्चा आप लोगों के लिए -
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आशीष नैथानी की कुछ कवितायें
माँ और
पहाड़
सीढ़ियों पर
चढ़ता हूँ
तो सोचता
हूँ माँ के बारे
कैसे चढ़ती
रही होगी पहाड़
जेठ के
उन तपते घामों में
जब मैं
या दीदी या फिर
छोटू बीमार पड़े होंगे
तो कैसे
हमें उठाकर लाती रही
होगी
हमारा लाश
सा बेसुध तन
डॉक्टर के
पास
घास और
लकड़ी के बड़े-बड़े
गठ्ठर
चप्पल जितनी
चौड़ी पगडंडियों पर
लाना
कोई लतीफ़ा तो
न रहा होगा
वो भी
तब, जब कोई ऊँचाई
से खौफ़ खाता हो
जंगलों की
लाल तपती धूप
नई
और कमजोर माँ
पर रहम भी न
करती रही होगी
माँ के
साँवलेपन में ईष्टदेव सूरज
करीने से
काजल मढ़ते होंगे
और माँ
उन्हें सुबह-सुबह ठंडा
जल पिलाती होगी
पूर्णिमा पर
चाँद की पूजा करने वाली
अँधेरे में
डरते-डरते छत पर
जाती होगी
और भागती
होगी पूजा जल्दी से निपटाकर
डर
से - जैसे सन्नाटा पीछा
कर रहा हो,
खुद को
सँभालती हुई तंग छज्जे
पर
हममें से
कोई रो पड़ता
और उसकी
नींद स्वाह हो जाती
हमें सुलाने
के लिए कभी-कभी
रेडियो चलाती
धीमी आवाज
में गढ़वाली गीत सुनती,
गुनगुनाती भी
उन पहाड़ों
की परतों के पार
शायद ही
दुवाएँ, प्रार्थनाएँ जाती
रही होंगी
जाती थी
सिर्फ एक रोड़वेज़
की बस
सुबह-सुबह
जो कभी
अपनों को लेकर नहीं
लौटती थी
पिताजी एक
गरीब मुलाज़िम रहे,
आप
शायद दोनों का अर्थ बखूबी जानते होंगे
गरीब
का भी और मुलाज़िम का भी
छब्बीस की
उम्र में
चार कदम
चलकर थकने लगता हूँ
मैं
साँस किसी
बच्चे की तरह
फेफड़ों में
धमाचौकड़ी करने लगती है,
बात-बात
पर मैं अक्सर बिखर सा जाता हूँ
क्या इसी
उम्र में माँ भी
कभी निराश हुई होगी
अपने तीन
दुधमुँहे बच्चों से,
पति का
पत्र न मिलने की
चिन्ता भी बराबर रही
होगी
थकता, टूटता
हूँ तो करता हूँ
माँ से बातें
(फोन
पर ही सही)
निराशा धूप
निकलते ही
कपड़ों के
गीलेपन के जैसे गायब
हो जाती है,
सोचता हूँ
वो किससे
बातें किया करती होगी
तब
दुःख
दर्द में
अवसाद की
घड़ियों में,
ससुराल की
तकलीफ़ किसे कहती होगी
वो जिसकी
माँ उसे ५ साल
में ही छोड़कर चल
बसी थी |
मैं जहाँ से आया हूँ
वहाँ आज भी सड़क किनारे
नालियों का जल
पाले से जमा रहता है आठ-नौ महीने,
माएँ बच्चों को पीठ पर
लादे लकड़ियाँ बीनती हैं
स्कूली बच्चों की शाम
रास्तों पर दौड़ते-भागते-खेलते बीतती है
वहाँ अब भी धूप उगने पर
सुबह होती है
धूप ढलने पर रात
वहाँ अब भी पेड़ फल उगाने
में कोताही नहीं करते
कोयल कौवे तोते पेड़ों पर
ठहरते हैं
कौवे अब भी खबर देते हैं
कि मेहमान आने को हैं,
बल्ब का प्रकाश वहाँ
पहुँच चुका है फिर भी
कई रातें चिमनियों के मंद
प्रकाश में खिलती हैं,
तितलियों का आवारापन अब
भी बरकरार है
उतने ही सजीले हैं उनके
परों के रंग आज भी
समय से बेफिक्र मवेशी
जुगाली करते हैं रात-रातभर
बच्चे अब भी जिज्ञासू हैं
जुगनु की रौशनी के प्रति
वहाँ हल, कुदाल, दराँती प्रयोग
में है
वहाँ प्यार, परिवार, मौसम, जीवन जैसी कई चीजें जिन्दा हैं
शहर के घने ट्रैफिक में
फँसा एक मामूली आदमी
कुछेक सालों में कीमती
सामान वहाँ छोड़ आया हैं
मैं जहाँ से आया हूँ
और वापसी का कोई नक्शा भी
नहीं है
मेरी स्थिति यह कि
लैपटॉप के एक नोटपैड में ऑफिस
का जरुरी काम
और दूसरे नोटपैड में कुछ
उदास शब्दों से भरी कविता लिखता हूँ,
मेरे लिए यही जीवन का
शाब्दिक अर्थ हो चला है
किन्तु कहीं दूर अब भी
मिट्टी के चूल्हे पर पक
रही होगी मक्के की रोटी
पानी के श्रोतों पर गूँज
रही होगी हँसी
विवाह में कहीं मशकबीन बज
रही होगी
दुल्हन विदा हो रही होगी,
पाठशालाओं में बच्चे
शैतानी कर रहे होंगे
प्रेम किसी कहानी की
आधारशिला बन रहा होगा
इंद्रधनुष बच्चों की
बातों में शामिल होगा
खेत खिल रहे होंगे रंगों
से
पक रहे होंगे काफल के फल
दूर कहीं
या कहूँ, जीवन पक रहा होगा
दूर जंगल में बुराँस खिल
रहा होगा
जीवन का बुराँस |
धूल फाँकती
धरोहरें
कुठारों
पर लटकते ताले
गौशाला
के टूटे हुए दरवाजों पर
ज़ंग लगी
साँकलें
चौक में
गड़े मवेशियों के खूँटे
उदास
पत्थर की ओखली
जिसमें
कूटा जाता था जीवन का चारा
बुजुर्गों
के स्वेद से महकती बड़ी समतल पठालें
पठालों
को सँभाले लकड़ी के खम्बे
खम्बों
पर बनी नक्काशियाँ
पूर्वजों
के कलाप्रेमी होने का सुबूतभर
नारंगी
अखरोट के घने वृक्ष
जो अब
समयानुसार
फूलते
हैं
फलते
हैं
और झड़
जाते हैं
इस मरघट
के सन्नाटे से पहले
यहाँ
बच्चों की किलकारियाँ थी
गुड़गुड़ाहट
थी हुक्के की
मंत्रोच्चार
ढोल दमाऊ
मशकबाजे की धुनें थी
गाय-बकरी की आवाज़ें
गौंत-गोबर की महक थी
सवाल
यह कि
क्या
हम वाकई छोड़कर ये धरोहर
एक 'टू बी. एच. के.' में शिफ्ट
हो चुके हैं ?
पहाड़े
उन
दिनों पहाड़े याद करना
मुझे
दुनिया का सबसे मुश्किल काम लगता था,
पहाड़े
सबसे रहस्यमयी चीज
९ के
पहाड़े से तो मैं हमेशा चमत्कृत रहा
वो
मुझे अहसास दिलाता
एक
सुसंस्कृत बेटे का
जो
घर से बाहर जाकर भी
घर
के संस्कार न भूले
मैं
देखता कि कैसे
६ के
पहाड़े में आने वाली सँख्यायें
३ के
पहाड़े में भी आती
मगर
छोटे-छोटे क़दमों में,
मुझे
लगता एक पिता
अपने
बच्चे की कलाई थामे
१२, १८, २४
वाली धरती पर कदम रख रहा है
और
बच्चा
६, ९, १२
वाली धरती पर,
पिता
के दो क़दमों के बीच की दूरी
बच्चे
के क़दमों की दूरी की दूनी रहती
१०
का पहाड़ा हुआ करता था मासूम
पहली
पंक्ति में बैठने वाले बच्चे की तरह
जिसकी
ऐनक नाक पर टिकी होती
जो
बालों पर कड़वा तेल पोतकर आता
और
बाल ख़राब होने पर बहुत रोता था
१७
का पहाड़ा सबसे बिगड़ैल
गुण्डे
प्रवृत्ति के छात्र की तरह
सर्दियों
में हम धूप में बैठकर गणित पढ़ते
बस्ते
में रहती एक पट्टी पहाड़ा
जिसे
हम रटते रहते,
मौखिक
परीक्षा में १९ का पहाड़ा पूछा जाता
सुनाने
पर पूरे २० अंक मिलते
कभी-कभी
नगर में पहाड़ा प्रतियोगिता होती
मैं
२५ तक पहाड़े याद करता
और
देखता कि कुछ बच्चों को ४२ का भी पहाड़ा याद है,
हालाँकि
समय गुजरते उन्हें भी २५ तक ही ठीक से पहाड़े याद रहते
मुझे
२५ के पहाड़े से अगाध प्रेम रहा
जो
बरकरार है
उन
दिनों
पहाड़ों
की गुनगुनी धूप में
पहाड़े
याद करना
जीवन
की सबसे बड़ी चुनौती थी
सोचता
हूँ फिर से वे दिन मिल जाएँ
फिर
से मिल जाय पीठ पर हाथ फेरती गुनगुनी धूप
मास्टर
जी की डाँट,
अबकी
बार इन चुनौतियों के बदले
मैं
भी ४२ तक पहाड़े याद कर लूँगा
कभी
न भूलने के लिये |
माफ़ करना इरोम
(मणिपुर की लौह-महिला इरोम शर्मीला की १४ वर्ष लम्बी न्यायिक हिरासत समाप्त
होने पर)
माफ़ करना इरोम
कि तुम ऐसे देश में पैदा
हुई
जहाँ अपने ही रक्षक
अपनी गोलियों पर
अपने लोगों के नाम लिए घूम
सकते हैं
जहाँ अधिकारों को मिली है
विशेष होने की छूट
जहाँ के नियम मजदूरों के
खून के धब्बों से नहीं बदलते
किसानों की मौतें सिर्फ
सुर्खियाँ रहती हैं
जहाँ सफेदपोशों की
सुविधाओं का रखा जाता है पूरा ख़याल
इरोम
तुम्हारा यह वनवास भी
हम कुछ दिन में भूल जाएँ
तो हमें माफ़ करना,
क्योंकि यहाँ याद रखना कोई
उपलब्धि नहीं है
तुमने ऐसे अमनपसन्द लोगों
की लड़ाई लड़ी
जो ढोना चाहते थे शान्ति
अपने कन्धों पर,
जो रक्षकों से रक्षा की
नाजायज उम्मीद में थे
तुम्हारा जुर्म यह भी कि
तुम अपने प्राण लेना चाहती
थी
और तुम्हारे मृत प्राणों
से उपजा तूफ़ान
सरकार के प्राण सुखा सकता
था
माफ़ करना कि पूरा मुल्क
देखता रहा तमाशा
अख़बारों में खबर पढ़-पढ़कर
कुछ बेसुरी आवाजें निकालता
रहा
जबान तालू से सटाकर
साल दर साल गिनता रहा
ग्यारह बारह तेरह और चौदह
बरस तक
क्योंकि यहाँ, वहाँ से हालात कभी न रहे
इरोम
तुम्हारी एक ही तस्वीर
दीखती है हर जगह
अखबार और टेलीविजन पर
जिसमें लगी होती है एक नली
नाक के ऊपर
और पीछे एक पीली
मुस्कुराती सूरत
जिसकी आँखों के पास लुढ़कते
हैं दो-एक आँसू
इन आँखों के सपनों में
क्या सिर्फ गोलियाँ आती होंगी ?
जिस उम्र में स्वप्न चढ़
रहे होते हैं आकाश
कदमों से नाप ली जाती है
धरती,
ये क्या हठ लिए बैठ गयी
तुम ?
‘मालोम’ ने भर दिया है तुम्हारी नसों में लोहा
जो धधकता है हर घडी
मजलूमों की पीड़ा की ज्वाला
से
तुम्हारा यह मौन संघर्ष
उन लाखों लोगों को सुकून
की छाँव देता है
हौसला देता है जीने का
लड़ने का विश्वास
होने का लोकतान्त्रिक अहसास
उन सभी की एक ही मुखर आवाज़
है
‘इरोम चानू शर्मीला’ |
कैप्टेन राम सिंह ठाकुर
जिन उँगलियों ने पैदा की ‘शुभ सुख चैन’ की धुन
‘कदम कदम बढाए जा’ का साज जिन्होंने रचा
हम भूल गए उन्हें
धुनों के अजनबी पंछी
कानों कि मुंडेरों पर
फुदकते हैं और उड़ जाते हैं
अब कोई जहमत नहीं उठाता
दाना डालने की
हम समय की जिस सुरंग में
हैं
वहाँ पिछला प्रकाश भूलना
आम हो चला है
याद करने के नाम पर
तुम्हारी पैदाइश के
१००वें बिसरे बरस लिख रहा हूँ यह कविता
पहली गोरखा रायफल्स के
जवान
नेताजी के प्रिय
कैप्टेन राम सिंह !
कि हम तुम्हें और तुम
जैसे कइयों को
गुजरे कल ही भूल चुके हैं,
आज गलती से लिखी गयी है
यह कविता
कल यह कविता भी बिसरा दी
जाएगी |
अम्ल और क्षार
रसायन
की कक्षा में पढ़ा था
अम्ल और क्षार के बारे में
इनकी प्रकृतियों का अध्ययन किया
जाना कि दोनों धुर विरोधी हैं
समन्दर के साहिलों की तरह
श्रीप्रकाश डिमरी जी जब रसायन पढ़ाते थे
जो पसीने से माथा तर-बतर हो जाता
पसीने के अम्ल और क्षार की जानकारी हमें कभी नहीं मिली
प्रयोगशाला में सभी अम्ल जलमिश्रित रहते
ताकि भावी वैज्ञानिक
जोश में न कर दें कोई उलजुलूल प्रयोग,
कभी-कभी ये अम्ल कपड़ों पर गिरते
और जले का दाग उत्पन्न कर देते
अभी अभी...
टीवी पर चल रही है ब्रेकिंग न्यूज
कि रेलवे स्टेशन पर एक असफल प्रेमी ने
एक लड़की के चेहरे पर उड़ेल दिया कुछ अम्ल,
लड़की अस्पताल में तड़प रही है
वह मनचला फरार है
पुलिस तलाश कर रही है
सोशल मीडिया पर बहस तेज है
मैं
सोच रहा हूँ दिमाग में बने इस अम्ल के बारे
बच्चे प्रयोगशाला में फिर से प्रयोग कर रहे हैं
जलमिश्रित अम्लों से अभी भी जले के दाग बन रहे हैं
दुनिया
में क्षारों की घोर कमी महसूस हो रही है
और
डिमरी जी उसी मेहनत से रसायन पढ़ा रहे हैं |
गाँव का मुख शहर की ओर
कि
चेहरे पर गड़ी होती हैं आँखें
और
विज्ञान का कथन है कि आँखें देखती हैं
उन
वस्तुओं को जिन पर प्रकाश पड़ता है
जबकि
आध्यात्म कहता है
कि
बंद आँखें ही देख पाती हैं - प्रभु
को
एक
शहर है
जो
चमकता है रोशनियों से
तो
जहाँ भी आँखें होंगी
उन्हें
शहर दिखाई देगा
एक
गाँव है
जहाँ
रोशनी नहीं है
यानी
वहाँ
प्रभु
के पाये जाने की सम्भावना प्रबल है
गाँव
का चित्र नहीं है
शहर
की आँखें गाँव की तरफ नहीं हैं
युवा
पतंगे शहर पर चिपक रहे हैं
क्योंकि
गाँव का मुख शहर की ओर है
ओर
शहर की पीठ...
शर्तिया इलाज़
बस के शीशों पर टंगा है
इश्तिहार
बाबा का शर्तिया इलाज़
समस्या कोई भी हो
कैसी भी हो
इलाज़ संभव है बाबा के पास
प्रेम-विवाह में अड़चन या वैवाहिक
जीवन में समस्या
जमीन की दिक्कत या कचहरी
का मामला
बेरोजगारी तक का इलाज़ रखते
हैं बाबा
किसी को वश में करना भी
जानते हैं
जादू-टोना और काला-जादू बाबा के परास्नातक के विषय
दोनों में स्वर्ण-पदक
बाबा का चैलेन्ज कि असर
दीखने लगेगा तीन दिन में
हमारी होम्योपैथी भी रोग
ठीक करने में सप्ताह भर का समय लेती है.
शहर
के मजदूर
सड़क
किनारे पालथी मारे बैठे हैं सभी
हँस
रहे हैं, बतिया रहे हैं
उनके
शब्द श्लील-अश्लील की सारी सीमायें लाँघ चुके हैं
वे
थके हैं
बीड़ी
का धुँआ उनकी थकान उड़ाने की कोशिश में है
उन्होंने
पास रखा है अपना-अपना पीला हेलमेट
मैले
कपड़ों के भीतर सिकुड़ी गात
और
पसीने की गन्ध,
लाल
आँखों में पड़े मिट्टी के कण
और
बे-उम्र सफेद हो चले बाल,
परिचय
इतना कि ये सभी
एक
विश्व-स्तरीय कंपनी के
दिहाड़ी
कामगार हैं
ये
वे लोग हैं जिनके पसीने से शहर सिंचता है
जिनकी
भुजाओं से खड़े होते हैं
बड़े-बड़े
फलाईओवर,
शहर
में प्रस्तावित मेट्रो के ऊँचे खम्बों
और
स्टेशनों को बनाने वाले ये मजदूर
लौट
रहे हैं अपने घरों को
ये
इन्तजार में हैं कि कब इनकी बस आएगी
कब
दिन खत्म होगा
ये
मुसलसल इन्तजार का सिलसिला
बस
आएगी तो ले जाएगी इन्हें
वर्क
साइट से वहाँ, जहाँ ये रात गुजारते हैं
कल
सुबह फिर बस आएगी इन्हें लेने समय पर
और
हाँ, सुबह बस कभी लेट नहीं होती.
परिचय
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नाम
- आशीष नैथानी
जन्म
– जुलाई,८/१९८८
जन्मस्थान
– ग्राम-तमलाग, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
शिक्षा
– मास्टर ऑफ़ कंप्यूटर एप्लीकेशन्स (एम.सी.ए.)
प्रकाशित
कृति – काव्य-संग्रह ‘तिश्नगी’ २०१३ में प्रकाशित
स्थाई
पता – नैथानी भवन, अम्बीवाला, प्रेमनगर देहरादून 248007
सम्प्रति
– सॉफ्टवेयर इंजीनियर, मुम्बई
ईमेल – ashish.naithani.salil@gmail.com
मेरी इन कविताओं पर जो टिप्पणियाँ प्राप्त हुई, उन्हें भी संलग्न कर रहा हूँ |
इस सार्थक चर्चा के लिए मैं
सूत्र समूह और विजय सिंह जी का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ. मैं इन सभी टिप्पणियों
को सहेजकर रख रहा हूँ ताकि कविता की इस यात्रा में ये मेरी मददगार साबित हो सकें.
आशीष नैथानी !
ashish.naithani.salil@gmail.com
https://tishnagiashishnaithani.blogspot.in/