तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Saturday 29 March 2014

पहाड़े !

उन दिनों पहाड़े याद करना
मुझे दुनिया का सबसे मुश्किल काम लगता था,
पहाड़े सबसे रहस्यमयी चीज |

९ के पहाड़े से तो मैं हमेशा चमत्कृत रहा
वो मुझे अहसास दिलाता
एक सुसंस्कृत बेटे का
जो घर से बाहर जाकर भी
घर के संस्कार न भूले |

मैं देखता कि कैसे
६ के पहाड़े में आने वाली सँख्यायें
३ के पहाड़े में भी आती
मगर छोटे-छोटे क़दमों में,
मुझे लगता एक पिता
अपने बच्चे की कलाई थामे
१२, १८, २४ वाली धरती पर कदम रख रहा है
और बच्चा
६, ९, १२ वाली धरती पर,
पिता के दो क़दमों के बीच की दूरी
बच्चे के क़दमों की दूरी की दूनी रहती |

१० का पहाड़ा हुआ करता था मासूम
पहली पंक्ति में बैठने वाले बच्चे की तरह
जिसकी ऐनक नाक पर टिकी होती
जो बालों पर कड़वा तेल पोतकर आता
और बाल ख़राब होने पर बहुत रोता था |

१७ का पहाड़ा सबसे बिगड़ैल
गुण्डे प्रवृत्ति  के छात्र की तरह |

शर्दियों में हम धूप में बैठकर गणित पढ़ते
बस्ते में रहती एक पट्टी पहाड़ा
जिसे हम रटते रहते,
मौखिक परीक्षा में १९ का पहाड़ा पूछा जाता
सुनाने पर पूरे २० अंक मिलते |

कभी-कभी नगर में पहाड़ा प्रतियोगिता होती
मैं २५ तक पहाड़े याद करता
और देखता कि कुछ बच्चों को ४२ का भी पहाड़ा याद है,
हालाँकि समय गुजरते उन्हें भी २५ तक ही ठीक से पहाड़े याद रहते |

मुझे २५ के पहाड़े से अगाध प्रेम रहा
जो बरकरार है |

उन दिनों
पहाड़ों की गुनगुनी धूप में
पहाड़े याद करना
जीवन की सबसे बड़ी चुनौती थी |

सोचता हूँ फिर से वे दिन मिल जाएँ
फिर से मिल जाय पीठ पर हाथ फेरती गुनगुनी धूप
मास्टर जी की डाँट,
अबकी बार इन चुनौतियों के बदले
मैं भी ४२ तक पहाड़े याद कर लूँगा
कभी न भूलने के लिये |

शीष नैथानी लिल
मार्च/२९/२०१४ (हैदराबाद)

Monday 17 March 2014

होली दोहे !!



होली के पावन दिवस, ऐसे उड़े अबीर |
हरिद्वार में चमक उठे, जैसे गंगा तीर ||

फागुन पूनम आ गयी, आया प्रिय त्यौहार |
रंग लिए घर से चले, बाल प्रौढ़ नर नार ||

बच्चों के रंगे हुए, लाल बैंगनी गाल |
काला गोरा सब रँगा, रंगारंग कमाल ||

तितली को तितली लगे, उस दिन पूरा गाँव |
रंग पहनकर जब चलें, बादल पानी छाँव ||

कभी-कभी ही दीखती, आँखों में मुस्कान |
कभी-कभी इन्सान से मिल पाता इन्सान ||

पानी की बौछार से, सिहरा पूरा गात |
सुबह-सुबह की ठण्ड में, हाय कुठाराघात ||

गुजिया की मीठी महक और ठंडाई भाँग |
रंगों के त्यौहार पर, बस इतनी सी माँग ||

पीस कोयला खेलता, होली मेरा गाँव |
निशा रूप में रँग गए, मुँह हाथ और पाँव ||

अधरों पर प्रिय गीत है, काँधे पर है ढोल |
पूनम के उजले दिवस, मीठे-मीठे बोल ||

सरसों गेहूँ बाजरा, जाने कितने रंग |
रंग प्रेम में माँ धरा, कितनी हुई मलंग || 

रंगों से खेला करे, एक कृषक परिवार |
वृहद धरा की थाल पर, धान बाजरा ज्वार ||

संस्कृति पर हावी हुआ, वैश्विकता का दौर |
होली को ऑफिस लगे, बम्बइ या बंगलौर ||

स्वर्ण रंग सा चमकता, आजादी का घाम |
सीमा पर मुश्तैद है, सैनिक ! तुझे सलाम ||

चाहे सूखी खेलिए या खेलें लठमार |
होली के पर्याय हैं, प्रीत प्रेम औ' प्यार ||

उप्पल से कोथागुड़ा, इधर खैरताबाद |
इंद्रधनुष बन झूमता मस्त हैदराबाद ||




 











Monday 10 March 2014

ग़ज़ल !!

राह में खतरे बड़े हैं
हमसफ़र पीछे पड़े हैं |

देख लेंगे हर मुसीबत
हौसले ज़िद पर अड़े हैं |

चार दिन की ज़िन्दगी और
रोते-धोते थोपड़े हैं |

जानते हैं जीत क्या है
जंग जो सैनिक लड़े हैं |

शोरगुल ऊँचे महल का
तन्हा-तन्हा झोपड़े हैं |

क्या हुआ आबोहवा को
फड़फड़ाते फेफड़े हैं |

छेड़ना मत, है सियासत
सब हैं मुर्दे सब गड़े हैं |

हर तरफ़ माहौल अच्छा
कितने झूटे आँकड़े हैं |

आलसी बेहोश हैं सब
होशवाले बस खड़े हैं |

                 आशीष नैथानी सलिल

Saturday 1 March 2014

ग़ज़ल - जारी है !

बादलों में भी जंग जारी है
क्या ख़बर कितनी बेकरारी है |

फिर सितारों पे तेरा नाम लिखा
फिर अकेले में शब गुजारी है |

उम्र कैसे कटेगी तेरे बगैर
उम्रभर सोचकर गुजारी है |

क़त्ल की पूछते हैं परिभाषा
ज़िन्दगी ज़िन्दगी से हारी है |